SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ★ I ( २४४ ) विषय पर सर्वज्ञ तीर्थकर महावीर ने वैज्ञानिक प्रकाश डाला था - द्वादशाङ्ग वाणी में गणधर इन्द्रभूति गौतम ने उसे ग्रंथवद्ध करके सुरक्षित वना दिया था । क्षयोपशम विशेष के अधिकारी मुनिवरों की तीक्ष्ण स्मृति मे वह भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग सात सौ वर्ष तक सुरक्षित रहा । उन श्रुतधरों द्वारा लोक का महती कल्याण हुआ परन्तु उपरान्त वैसे मेधावी मुनि पुंगवों का अभाव होने के कारण वह महावीर वाणी लुप्त हो गई। जो सुरक्षित अंश शेप रहा वह प्रथम शताब्दि के मध्य गिरिनगर मे लिपिवद्ध कर लिया गया । जीवधर मुनिराट् ने उस श्रुत को अपनी प्रवीण बुद्धि में पूर्णत धारण किया था । श्रेणिक ने उनसे जैन गणित का विस्तार सुनकर अपने को धन्य माना । द्वादशाङ्ग रूप जिनेन्द्र महावीर की वाणी में गणित का अपूर्व विकास हुआ। लोक के स्वरूप को निर्धारित करने के लिए उसका प्रतिपादन हुआ । लोकाकाश मे जीव आदि द्रव्यों का गमनागमन है । वह लोक उस मनुष्य के आकार का है कि जिसका सिर न हो और वह दोनों पैर फैलाये और कोन्हियों को मोड़कर कमर पर हाथ रक्खे हुए खड़ा हो । वह लोक तीन भागों में विभक्त है:-(१) ऊर्ध्व, (२) मध्य, (३) अधो । ऊर्ध्वलोक में ज्योतिषी देवों के विमान - चद्र, सूर्य, नक्षत्र, तारा आदि एवं स्वर्ग पटल अवस्थित हैं । मध्यलोक मे मनुष्यों का वास मुख्यत से है - हमारा जगत इसी में है । अधोलोक हमारे जगत से नीचे है । वहाँ उत्तरोत्तर प्रकाश का अभाव है । नारकी जीव अधकार में ही रहते हैं । इस लोक और जीवादि द्रव्यों का परिमाण बतलाने के लिये ही अनन्त, असंख्यात और संख्यात नामक गणिताङ्कों का प्रयोग तीर्थंकर महावीर ने किया था । यह अनुभव की बात है कि पुराने जमाने के आदमियों और जानवरों की आयु काय अव से कहीं ज्यादह और बड़ी होती थी । वे बड़ी I
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy