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सता है, तब तदाकार मूर्तियों क्यो न विशेष उपयोगी होंगी ? मूर्ति की उपयोगिता में शंका करना व्यर्थ है। हॉ! मूर्ति को ध्येय न मानकर ध्येय प्राप्ति का साधन मानना ही उचित है !"
श्रेणिक ने मूर्ति और आदर्श पूजा का महत्व हृदयङ्गम किया । राजगृह और सम्मेद शिखर पर उन्होंने कई दर्शनीय जिनमन्दिर बनवाये और उनमें मनोहारी जिन प्रतिमायें विराजमान कराई ́ । उन्होंने प्राचीन तीर्थों जैसे मथुरा, गिरिनार आदि की प्रभावशाली मूर्तियों की पूजा वन्दना करके अपने भाग्य को सराहा ! उनका अनुकरण अन्य मुमुक्षुओं ने किया और भारत को नयनाभिराम मूल्यमई मन्दिर - मूर्तियों से अलंकृत किया । जनता ने क्रिया काड की निस्सारता और आत्माराधना का महत्व हृदयङ्गम किया । श्रेणिक के प्रश्नोत्तर प्रसंग मे यह तत्व स्पष्ट होगया था । मनुष्य स्वयं अपने कर्मों का कर्त्ता और भोक्ता है - दूसरों के पुण्य-पाप का उत्तरदायी वह नहीं हो सकता । पुरोहित की पूजा यजमान के भावों को पवित्र नहीं बना सकती। हॉ, कारित और अनुमोदना का भागी वह अवश्य है, परन्तु अन्तर शुद्धि के लिये मनुष्य को स्वयं प्रयत्न करना श्रेयस्कर है । कुलाचार का अन्ध अनुकरण कल्याणकारी नहीं है – विवेक ही कल्याणकर्ता है। स्त्री हो, चाहे पुरुष - उसे स्वयं अपने कर्मों की निर्जरा और संवर के लिये जिनेन्द्र की पूजा भक्ति और त्यागधर्म- दानपुण्य का पालन करना आवश्यक है । वीर वाणी में श्रोताओं ने यह स्पष्ट सुना था कि धर्म मे जाति और कुल वाधक नहीं है— मुमुक्षु चाहे ब्राह्मण हो और चाहे शूद्र अपना आत्म कल्याण करने के लिये स्वाधीन है ।' पूर्वभव में इन्द्रभूति गौतम और उनके दोनों भाइयों के जीव दु.खीदरिद्री, रोगी शोकी शूद्रा कन्यायें थीं। उन्हें एक जैनमुनि के -दर्शन हुये, जिनसे उन्होंने 'लब्धि विधान व्रत' प्रहण किया और
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