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का प्रभाव उनके भक्त राज शासकों पर ऐसा पड़ा था कि मध्य काल तक प्रत्येक जैन मन्दिर के साथ चारों प्रकार के दान देने के लिये दानशालायें स्थापित कराने का नियम बना दिया गया था । इस नियम पालन से सच्चा लोकोपकार और धर्मोत्कपे होता है । संचित धन का सदुपयोग होते रहने से मानव प्रकृति दुष्कृ. तियों की शिकार नहीं बनती है। ___ उपरान्त श्रेरिक ने पछा कि "प्रभो! प्रत्येक समय यह संभव नहीं है कि अर्हत् भगवान् साक्षात् विराजमान हों भक्त सशरीर जीवन्मुक्त परमात्मा की निकटता हर समय नहीं पा सकता, तब वह पजा-वन्दना कैसे करे ?" श्रेणिक ने सुनकर जो सममा उसका भाव था कि 'श्रेणिक ! यह शङ्का ठीक है। चौथे काल में ही सर्वज्ञ अर्हत-केवली के दर्शन होते हैं। अन्य काल ऐसे प्रशस्त नहीं हैं कि उनमें केवली सहश महापुरुष जन्म सकें । परन्तु गृहस्थ की भक्ति में इससे बाधा नहीं आ सकतीवह परोक्षरीति से पूजा वन्दना कर सकता है । तुम्हे याद है कि भूगोल का ज्ञान मानचित्र के द्वारा परोक्ष रूप में बिल्कुल ठीक करा दिया नाता है। ठीक वैसे ही तदाकार स्थापना-मूर्ति के द्वारा भक्त उपासना तत्व का व्यवहारिक अनुभव प्राप्त करता है। एक पथिक सूर्यताप से बचने के लिये त्राण छत्र (छाता) ले कर निकला और मार्ग में जहां वह ठहरा उसे रखकर भूल गया। जब उसने तेरा राजछत्र देखा तो उसे अपने त्राण-छत्र की सुध आ गई । वताओ क्या भला निर्जीव राजछत्र ने उससे कह दिया कि तू अपनी छत्री भूल आया ? नहीं। फिर भी उसका मूक प्रभाव उस पथिक के मानसपट पर पड़ा अवश्य ! निस्सन्देह इसी प्रकार ध्यानमुद्रामई जिन प्रतिमायें आत्मस्वरूप को भले हुये भक्त को उसका स्मरण कराने में मुख्य कारण हैं । भक्त उनके दर्शन करके केवली भगवान की आत्मविभूति