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करने के लिये भक्त स्तुति, बन्दना और उपासना सम्वन्धी कियायें करता है | श्रेणिक । स्तुति, वन्दना और उपासना में भक्त परमात्मा के गुणों अथवा तीर्थकरों के जीवन वृत्तान्त का मान करता है । संगीत और लय का सहारा लेकर वह सरागी भक्त उन गुणों के बखान मे तजीन हो जाता है। परिणामतः उसका श्रभ्यन्तर उन गुणों के रंग में रंगने लगता है। उसकी भक्ति श्रात्म संकेत ( Auto suggestio1 ) का कार्य करती है। मनोविज्ञानी जानता है कि आत्म सकेत अथवा आत्म-प्रेरणा श्रपूर्व श्रात्मशक्ति को प्रगट करती है जिनमें मनुष्य श्रश्रुत पूर्व कार्य कर जाता है । शुभभाव पुण्य हैं - जिनेन्द्र के गुणेगान मे शुभभाव होते ही हैं । शुद्ध आत्मद्रव्य के गुणों का वखान और चिन्तवन मुमुक्षु को शुद्धोपयोग का भान कराने मे मुख्य कारण है । तब मुमुत्तु 'दासोऽह' का भाव भूल जाता है और ‘सोऽह' के सतत-तत्वर आत्माल्हाद में मग्न हो जाता है । इस शुद्ध दशा को प्राप्त करने के लिये अतुभक्ति एक साधन है । गृहत्यागी साधुजन भाव पूजा करके ही अपने परिणामों की शुद्धि करने मे सफल होते हैं; परन्तु एक गृहस्थ-भक्त सातारिक संकल्प-विकल्पों में फसा हुआ है, उसका मन चंचल हैअपनी मन की चंचलता को एकदम वह नहीं रोक सकता । इसलिए मन की एकाग्रता के लिये उसे वाह्य साधन चाहिये - बस, वह द्रव्य पूजा का सहारा लेता है। जल-चंदनादि आठ द्रव्यों को अपने इष्टदेव के सम्मुख उत्सर्ग करके शुद्ध होने की भावना मनसा वाचा कर्मणा भाता है । जलोत्सर्ग करते हुये वह यह आत्मसंकेत ( Auto-suggestion ) अपने वचन द्वारा करता है कि इस संसार में सताप है-जन्म जरा का दुख हैमैं उस दुख को पानी दे रहा हॅू - फिर वह दुख मुझे न भुगतना पड़े । श्रेणिक ! उपासनातत्व का यह वैज्ञानिक रूप हैं । गृहस्थ
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