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तीन प्रदक्षिणा देकर विनयपूर्वक पूछा, "प्रभो । मार्ग में मैंने एक मुनिराज को वृक्षतले ध्यानमग्न देखा है, वे कौन है ? उनका मुख विकृत क्यों है ?" श्रणिक ने सुना, "अग देश मे चम्पा नगरी है । श्वेतवाहन वहाँ का राजा था, वही मुनि हुआ है और वर्मरुचि के नाम से प्रख्यात है। श्रेणिक | तुमने उन्हीं के दर्शन किये हैं। उनका पुत्र विमलवाहन राजभार संभालने में असमर्थ प्रमाणित हुआ है। वर्मरुचि मुनि जब आहार के लिए नगर में गये तो उन्होंने यह सुना कि 'यह कैसे निठुर हैं ? अपने असमर्थ बालक पर शासनभार छोड़कर स्वार्थ साब रहे हैं। पापी मंत्रियों ने बालक को बन्दी बना लिया है और स्वय शासक बन गये हैं।' मुनि धर्मरुचि यह सुनते ही पुत्रस्नेह मे विमोहित हो गये। उन्होंने आहार नहीं लिया। वैसे ही उल्टे पैरा लौट आये और क्रोधानल में झुलस रहे हैं। इसीलिये उनके मुख पर विकार था-संक्लेश परिणामों के होने से कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओं की वृद्धि हो गई है। यदि एक मुहूर्त तक उनकी यही स्थिति रही तो अवश्य ही उन्हें नरक आयु का बंध हो जायगा। अतः श्रेणिक तुम उन्हे जाकर समझा दो और उनको आत्मपतन से वचालो।" श्रेणिक यह सुनते ही धर्मरचि मुनिराज के पास पहुँचे और उन्हे मुनिपद का स्मरण दिलाया। वह बोले 'मुनिरात आप चिन्ता न करें। आप अपना धर्म पालें । मैं अपना वात्सल्य धर्म पालंगा आपका पुत्र अपने पुरुपार्थ से ही सुखी होगा।' धर्म रुचि को अपनी गलती सूझ गई-उन्होंने उच्च कोटि का शुल ध्यान माड़ा ओर कर्मशत्रुओं का नाश करके वह केवल बानी हुए। देवों ने खूब उत्सव मनाया। श्रेणिक ने भी मगल गान किया।
उपरान्त वीरनाथ से उन्होंने प्रश्न किया, "प्रभो, धर्मरुचि को एकदम केवलज्ञान कैसे हुआ ?" उत्तर मे उन्होंने जो सुना