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लिये ही सामाजिक और राजनैतिक विधान और नियम स्वीकृत होना उपादेय है। सिंह । इस प्रकार जहां पर सांस्कृतिक नैतिकता का प्राबल्य होगा, वहाँ वैर-विरोध के लिये स्थान न रहेगा । फिर मनुष्य भेड़ियों की तरह आपस में लड़ेंगे ही क्यो ? सब स्वाधीन रहेंगे और परस्पर सहयोग द्वारा एक दूसरे को सुखशान्ति पहुँचाने को उद्योग करेगे। सारे मनुष्यों की एक जाति है सारे विश्व के लोगों का एक कुटुम्ब है । फिर सब को क्यों न मिल कर जीवन सार्थक बनाना चाहिये ?" सिंह ने कहा, "लोकोद्धारक प्रभो आप हैं । लोक की विभूति हैं, परन्तु जगत मे वैषम्य रहा है । लोभी नृशंस नर भेड़िये की शक्ल में इस स्वर्ग सम वसुधा की शान्ति भङ्ग करने के लिये उधार खाये मिलते हैं - उनका इलाज अहिंसा कैसे ? वह तो युद्ध किये बिना नहीं नमेगे ?” सिंह ने समझा, कि "निस्सन्देह लोक मे अनन्तानुवन्धी कपाय के वशीभूत हुआ जीव सहसा अहिंसा - अकुश को नहीं मानता है। उसके दर्प को अहिंसा युद्ध से शांत करने का उद्योग करना ही श्रेष्ठ है --जलयुद्ध, मल्लयुद्ध, नेत्रयुद्ध आदि अहिंसक युद्ध हैं । इन मे जो जीते वही विजेता है । यदि इस पर भी कोई अन्याची मनुष्य लोक की स्वाधीनता छीनने और शान्ति भङ्ग करने पर तुला हो तो वह आततायी है। उससे अपनी, अपने धर्म अपने देश और जाति की जैसे भी हो वैसे रक्षा करना परमधर्म है । यही कारण है कि गृहस्थ विरोधी हिंसा का त्याग नहीं करता है । १ वह इससे बचता है यथा सम्भव और जब अनिवार्य होता है १ विद्या, मंत्र, असिबल ( तलवार के जोर) व तप आदि द्वारा धर्म प्रभावना करना चाहिये :--
"वाह्य प्रभावनांगोऽस्ति विद्या मत्रासिभिर्वलैः । तपोदानादिभि जैन धर्मोत्कर्षो विधीयताम् ॥३२०||
- लाटी संहिता ।