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निर्माण करके उनका पालन करना धर्म है। इसी प्रकार नगर धर्म नगरवासियों के लिये और राष्ट्रधर्म राष्ट्रोन्नति के लिये निखड पित है । प्रत्येक नागरिक और राष्ट्र का प्रत्येक सदस्य अहिंसामा के अनुसार नगर और राष्ट्र की उन्नति में संलग्न होते प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव ने पास, जगर और राष्ट्रधर्म की स्थापना की थी उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग राष्ट्रोद्धार और समा के कार्य में व्यतीत किया था। राष्ट्र का मूल आधार ग्राम दे। जब ग्राम की ठीक व्यवस्था है और खासी भी
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स रीति से पालन करते हैं, तब ट्र की उन्नति से दूर नही लगती। अवएव इन लौकिक धर्मों का पालन, हिंसा, नीति से करना ही उचित है । राष्ट्रोन्नति मे एक बड़ी बाधा समाव की होती है। उससे बचने के लिये प्रत्येक नागरिक को साँखण्ड धर्म का पालन, समन्वय और समभाव से करना चित है। पाखण्ड कहते हैं सम्प्रदायगत, व्रत नियमों के पालन को जब वे रू पाखण्ड नियम अहिंसा पर अनस्तित होती तब साम्प्रदायिक, विप्र पुनप ही न पायेगा । संव अपने २ मतानुकूल दयालु बनेगे और अपना एवं पराया हित साधेगे। कुलधर्म, गणधर्म और संघ धर्म सामाजिक एवं राजकीय व्यवस्था के लिये अनिवार्य है। कुलधर्म कुलाचार है, वह ऐसा होना चाहिये जिससे प्रत्येक कुल पतितावस्था को प्राप्त न हो, बल्कि, उच्च बनता जाने । अहिंसापजीबी होने से ही मनुष्य के कुल उच्च बनते है । व्यक्तिगत अथवा सामूहिक उद्योग धन्धे ऐसे करना विधेय है, जो अपने लिये और दूसरे के लिये लाभप्रद हो । उनमे अत्यल्प हिंसा होना - चाहिये ] गण और संघ "वैधानिक राजव्यवस्था के लिये स्थापित किये जाते हैं। उनमे यदि अहिंसा सिद्धांत को भुला दिया जायगा तो उनके सदस्य' अन्याय और स्वार्थ के चुद्धल मे फंस जायेंगे, जिसका परिणाम राष्ट्र के लिये बुरा होगा। उनमें सार्वहित के
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