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ही जिन धर्म का श्रद्धानी बनाया था और जैनधर्म की प्रभावना के लिये वह कुछ उठा नहीं रखती थीं। उनके महल सन्त पुरुषा की पद रज से निरन्तर पवित्र होते रहते थे। वहाँ चारों प्रकार का दान निरन्तर दिया जाता था। धर्म मार्ग से च्युत होते हुए असमर्थों को सम्भाला जाता था। देवी उपसर्ग को टालने का उद्योग चलन तरती थीं।
एक दिन वह द्वारापेपण कर रही थी। सौभाग्यवश एक कृपकाय तपोधन मुनिराज द्विमासोपवासी आये । रानी ने भक्तिपूर्वक पड़गाहा और आहार दान देने लगीं। उसी समय उन्होंने देखा कि कोई अदृश्य शक्ति मुनिराज पर उपसर्ग कर रही हैं - अपने इन्द्रियवर्द्धन को यदि मुनिराज देखते तो अन्तराय मान कर विना आहार लिये ही लौट जाते-उनका आहार शुद्ध और निरन्तराय होना चाहिये । चेलनी ने देखा, यदि इस समय मुनि का अन्तराय हो गया तो अनर्थ होगा। उन्होंने ऐसा उपाय किया जिससे उन मुनि को उस उपसर्ग का भान नहीं हुआ और उनका आहार हो गया । मुनिराज ने जाकर विपलाचल पर्वत पर ध्यान मादा-उस उच्च कोटिका, जिसमें उनके सारे कर्म नष्ट हो गये । उनको लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त हुआ। सुर-असुर और नर-नारी, सब ही उनकी वन्दना करने गये। चेलनी भी गई । अवसर पाकर उन्होंने मुनिराज से उस उपसर्ग का कारण पूछा । मुनिराज ने उत्तर दिया, "मुनि होने के पहले मैं पाटलिपन्न का राजकुमार वैशाख था। कनकभी मेरी पत्नी यौवन-गुण-श्रीयत थी। हम दोनों का व्याह हुए परामहीना नहीं हुआ था कि एक दिन मैंने अपने वालसखा मुनिदत्त को देखा । उन्हें भक्ति-विनय-पूर्वक मैने आहार दान दिया और उन से उपदेश सुना। मुझे संसार से वैराग्य होगया। मैं उनके साथ होलिया और मुनि हो तप तपने लगा।कनक श्री को यह बुरा लगा वह क्रोधावेश