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अशुद्धि को दूर नहीं कर सकता, तो फिर उससे पाप रूपी अशुद्धि कैसे दूर हो सकती है ? यदि जल में नहाने धोने से ही बुरी वासनायें और पाप दूर हो जायें तो फिर तप-दान आदि अनुष्ठानों का करना व्यर्थ हो जायगा ! सब लोग जल से ही पापमोचन करलें तो इस गंगा में हर समय रहने वाले मच्छ कच्छ आदि जन्तुओं की मुक्ति तो कभी की हो जाना चाहिये थी ! इसलिए हे भाई ! तू अपने चित्त से यह निर्मूल विचार निकालदे | गंगाजल निस्सन्देह जलों में श्रेष्ठ है, परन्तु वह आन्तरिक-आध्यात्मिक - शुद्धि का कारण नहीं है। वास्तव में मिथ्यात्व (झूठा श्रद्धान ) अविरत, प्रमाद, कपाय से पापकर्म वंधते हैं और सम्यक्त्व ( सत्य श्रद्वान ) ज्ञान, चारित्र, तप से पुण्य कर्मों का बन्ध होता है । अन्ततः मोक्ष भी इन्हीं से मिलती है | इसलिये जिनेन्द्र का मत ही समीचीन है । उसे ग्रहण कर ।' ब्राह्मण पुत्र को जैनी की यह बात जच गई और उसने तीर्थमूढ़ता भी छोड़ दी !
ब्राह्मण ने देखा वहीं पर एक तपस्वी पंचाग्नि तप तप रहा है । उसने उसे पहुॅचा हुआ साधु समझ कर वन्दना की । जैनी ने उसे समझाया, वह साधु कैसा जो धन ख्याति -लाभ के लिये शरीर को कष्ट देवे और हिंसामई कार्य करे ? साधु को तो समभावी, सतोषी और दयावान होना चाहिए । जलती हुई आग मे छहों प्रकार के जीवों का निरन्तर घात होता है । उसे हर कोई देखता है । फिर जान बूझ कर हिंसा करने वाले को तुम साधु कहते हो ? ब्राह्मण पुत्र वात को समझ गया और उसने अपनी गुरु मूढ़ता छोड़ दी ।
ब्राह्मण पुत्र
श्रावक ने देखा कि यद्यपि परन्तु उसे अपनी ब्राह्मण जाति का घमंड हैकी आत्मोन्नति में बाधक होता है। जैसे मद्य को पीकर मनुष्य
विवेकी भव्य है यह घमंड मनुष्य