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वह किसी ईश्वर के आधीन नहीं है । यदि वह स्वाधीन न हो तो उसे आत्म शुद्धि और मुक्ति के लिए प्रयत्न करने की गुजाइश कहां रहे ? फिर तो धर्म और धार्मिक क्रियायें भी निष्फल और व्यर्थ हों । मनुष्य कर्म करने में और उसका फल भोगने में स्वतंत्र है इसीलिये धर्म की आवश्यकता और सार्थकता है । ईश्वर को कर्ता न मानने से मनुष्य अपने ही किये से अपना वर्तमान और भविष्य का जीवन उन्नत बनाता है ! जब कौरव और पाण्डव लड़ २ कर खून खराबी कर रहे थे, तब ईश्वर ने क्यों नहीं उसका अन्त किया ? इसलिए हे ब्राह्मण पुत्र ! ईश्वर कर्तृत्व की मान्यता कायर पुरुषों की मानसिक कल्पना है । निश्चय ही जानो तुम अपने ही कर्मों के अनुसार सुख दुख पाते हो !" जैनी के इस सरल तर्कवाद को सुनकर उस ब्राह्मण पत्र ने अपनी देवमूढ़ता दूर कर ली। जैनी ने उसे यह भी समझा दिया कि 'यज्ञादि देवता पुण्यवान जीवों को स्वयं सहायक बनते हैं--व्यक्ति का पुण्य ही उसमे भी मूल कारण है । पुण्यरूपी कंकण के रहते हुये देवता भी किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते ! मनुष्य को अपना और पराया हित साधना चाहिए ।"
आगे चलने पर वह श्रावक और ब्राह्मण गंगानदी के किनारे पर पहुँचे । ब्राह्मण ने उसे 'मणिगगा' नामक उत्तमतीर्थं समझा और वह उसमें पापमोचन के लिये बड़ी श्रद्धा से डुबकियॉ लगाने लगा | जैनी उसकी इस तीर्थमूढ़ता पर तरस खा रहा था। उसने चट से भोजन किया और उचिष्ट मे गंगाजल मिलाकर ब्राह्मण के आगे रक्खा । ब्राह्मण यह देखकर लालपोला हुआ | जैनी ने नम्रतापूर्वक कहा, 'महाराज | नाराज न होइये । इसमें पवित्र गंगाजल मिला दिया है, जिसे आप शुद्धिकारक समझते हैं । यदि वह गंगाजल इस उच्छिष्ट दोष की
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