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( १४६ ) लिय एक समान था-उनके निकट जाति और लिङ्ग नहींगुण मान्य थे!
अवशेष गणधरों में श्री सुधर्माचार्यजी पांचवें और विशेष प्रख्यात् थे । वीर-निर्वाण के पश्चात् इन्द्रभूति गौतम के मुक्त हो जाने पर वही संघ के नेता हुये थे और केवलज्ञानी हो गये थे। उन्होंने वीर संघ का नेतृत्व बारह वर्षों तक किया था। वह भी जन्म-से ब्राह्मण थे । उनका गोत्र अग्निवैश्वायन था। वह 'लोहार्य नामसे भी प्रसिद्ध थे। कोल्लगसन्निवेश में उनका जन्म धन्मिल पुरोहित और ब्राह्मणी भद्रिला के घर में हुआ था। उनकी प्राय सौ वर्ष की थी। मुनि जीवन में उन्होंने सारे भारत में विहार किया था। पंडवर्द्धन (बंगाल) में उनकाविहार और धर्मप्रचार विशेषरूप में हुआ था ।"
शेष नौ गणधर भ० महावीर के जीवनकाल में ही मुक्त हो गये थे। चौथे गणधर अव्यक्त अथवा शुचिदत्त नामक थे। वह भी भारद्वाज गोत्री ब्राह्मण थे और जैनधर्म में दीक्षित हुये थे। कुण्डग्राम के पास ही कोल्लगसन्निवेश के ब्राह्मण धनमित्र और ब्राह्मणी वाहणी उनके पिता-माता थे। वह असी वर्ष की आयु में मुक्त हुये थे। छठे गणधर मडिकपुत्र भी वशिष्टगोत्री ब्राह्मण थे। वह मौर्याल्य देश में धनदेव के घर विजयादेवी की कोख से जन्मे थे । सातवें गणधर मौर्यपुत्र काश्यप गोत्र के थे और मौर्यास्यदेश उनकी जन्म भूमि थी। इनके पिता पुरोहित मौर्यक नाम के थे। इनकी आय ६५ वर्ष की थी। आठवें गणधर अकम्पित या अकम्पन भी गौतमगोत्री ब्राह्मण थे। मिथिलापुरवासी विप्रदेव इनके पिता और जयन्ती माता थीं। ७८ वर्ष की आय में यह मुक्त हुये। नवें गणधर अचलवत
1- संवेइ०, ना. २ खर १ पृ० १२३-१२२