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एकान्तवास के लिये बने हुये थे जहाँ वह पर्व दिवसों में उपवास धारण करके धर्मध्यान में सनय बिताते थे और लोक का उपकार करते थे।
इस प्रकार भव्य जीवों को धर्म-सन्बोधन देते हुये भगवान् मगध से विहार करके दूर-दूर देशों तक गये थे । जब वह हिमालय की तलहटी में विहार करते ये श्रावती नगरी न पहुँचे थे, तब आजीविकों का वहा प्रावल्य था । लोग अनाना बाद मे वहे जा रहे थे-भाग्य भरोसे रहने के कारण साहस को खो बैठे थे। भ० महावीर के दिव्योपदेश से उन्होंने अपने अजान को धो बाला और वे धर्म पुत्याधी बन गये । श्रावती के राजा प्रसेनजित (अग्निदत्त) ने भक्ति पर्वक भगवान् का अभिवन्दन किया। उनकी रानी मल्लिका ने एक सभागृह वनवाया, जिसमे ब्राह्मण, जैनी आदि परस्पर तत्वचर्चा किया करतं थे।२ श्रावन्ती से भगवान कौशल के वैपट्रो आदि नगरों में धर्मवर्षा करते हुये विचरे थे।
मिथिला नगरी भी भगवान् के शुभागमन से कृतार्थ हुई थी। वह विदेह देश की राजधानी थी।३ पोलाशपुर में भगवान् का स्वागत राजा विजयसेन ने बड़े आदर से किया था। राजकुमार ऐमत्त भगवान के चरणों में मुनि हुआ था । अंगदेश के मानवों को गर्व था कि प्रभू महावीर के समान महान् जगतगुरु और नार्गदर्शक द्वारा उनकी मातभमि पवित्र हुई है। अङ्ग
१. लाहा, महावीर पृष्ट ३५-३६ २. सइ०, भा० २ वड : पृष्ठ १३-६४ ३. नेपाल की सरहद पर बनकपुर नामक ग्राम मिथिला अनुमान की
जाती है। मुरारपुर और इरन्गा जिलों की संयक मीमा से वह उत्तर में है।