________________
( १२४ ) रूप में बंट जाता है । वह आठ प्रकृतियाँ हैं : (१) दर्शनावर्णी (२) ज्ञानावर्णी (३) मोहनीय (४) अंतराय (५) वेदनीय (६) नाम (७) गोत्र और (6) आयु । जीव के संसारी जीवन मे यही मुख्य प्रेरक कारण हैं । इन्द्रभूति गौतम ने इन कर्मों का भी सूक्ष्म वर्णन वीर वाणी मे सुना और सुनते ही उसके मस्तिष्क के कपाट खुल गये।
उन्होंने आगे सुना कि जब तक जीव इन कर्मों के नाच नाचता है मोह मे पड़कर बाहरी पर पदार्थों को अपनाने में रस लेता है, तब तक वह वहिरात्मा कहलाता है उसकी बाहरी दृष्टि है। काल लब्धि पर जब वह बाहरी जगत से दृष्टि फेर कर अपने भीतर दृष्टि लगाता है और जान लेता है कि मैं वाह्यजगत से भिन्न चेतन रूप हूँ यह शरीर भी मुझसे भिन्न है-में स्वभावतः शुद्ध-निमल-परमसुखी आत्मा हूँ, तब वह इस भेद विज्ञान को पाकर अन्तरात्मा हो जाता है। वह जान लेता है कि जिस तरह एक पक्षी मट्टी से लदे हुये अपने पंखों को सुखा और झाड़कर स्वस्थ होता और उड़ने की शक्ति पाता है, उसी तरह जीव भी निर्मोही होकर कर्म-रूपी मैल को सुखा और झाड़ डालता है और सुखी होता है । वह चलने में सावधानी रखता है-खड़े होने में सावधान रहता है और लेटता-बैठता भी सावधानी से है। शुद्ध भोजन भी सावधानी से करता है और बोलता भी सावधानी से है। परिणामत वह दुष्का का वन्ध नहीं करता; बल्कि सचित कमों की निर्जरा करने के लिये उद्योगी होता है। निर्जन स्थान में वह जान-ध्यान और योगाभ्यास में लीन रहता है। तपाग्नि को सुलगा कर वह कमों की निर्जरा कर डालता है-कला से मुक्त होकर परमात्मा बन जाता है। अब वह किमी के बन्धन में नहीं रहता-किसी का गुलाम नहीं होता! इन्द्रमृति प्राणीमात्र के लिये मुलभ इस यात्मत्वातन्त्र्य के सदेश