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( १८७ ) महावीर ने जान लिया था कि अज्ञान ही मनुष्य जाति का परम शत्रु है । और इसीलिए वह उसको नष्ट करके पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए योगी बने थे।
बारह वर्ष की घोर तपस्या के पश्चात् भगवान् एक दिन विहार प्रान्त के जम्मकग्राम के निकट आ निकले। वहां ऋजकुला नदी बहती थी और मनोहर वनराशि अपर्व लहलहाती थी। ऋतुराज ने प्रत्येक दिशा और क्षेत्र मे नवजीवन, नवजागृति और नवज्योति की आनन्द विभूतियाँ बिखेर दी थीं। वह वैशाख शुला दशमी की पुण्यमई तिथि थी। भगवान् वहा षष्ठोपवास (बेला ) माढकर एक सघन साल-वक्ष के मूल मे मनोरम रत्नशिला पर विराजमान थे। उन्होंने अपूर्व ध्यान माढा था। वह ध्यान जिसमे निरन्तर अपर्व-अपूर्व और प्रति क्षण शुद्धतर और शुक्लतर परिणाम होते जाते हैं। उन्होंने अठारह हजार शील-प्रतरों से वेष्टित बख्तर पहना, चौरासी लाख गुणों से भूषित महाव्रतादि भावनास्त्र संभाले, सवेग रूपी गजराज पर वह सवार हुये और चारित्र रूपी युद्ध भूमि मे जा डटे ! रत्नत्रय धर्म रूपी महावाणों को उन्होंने तप रूपी धनुष पर चढ़ाया! यह देख गुप्ति-समिति-रूप सेना हर्षोन्माद मे 'महावीर' का जयघोष करने लगी ! इस प्रकार महावीर वर्द्धमान कर्मशत्रओं को परास्त करने के लिए उद्यमी हुये । उनका महान् पराक्रम था वह ! धर्म ध्यान के अपायविचयादि स्तंभों का प्रयोग वह पहले ही कर चुके थे-मोह शत्र क्षीण हो चला था। शुक्लध्यान रूपी चौधारे अजेय अस्त्र के समक्ष वह टिका नहीं । मोहनीय के भागते ही दर्शनावरण ज्ञानावरण, और अन्तराय कर्म भी अपने सुभटों को लेकर भाग खड़े हुये । भ० वर्द्धमान महावीर की महान् विजय हुई, उन्हें केवल ज्ञानलक्ष्मी ने वरा-अनुपम, असीम और अनन्त थी वह । उसका