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( ५ ) कि जिसकी कीमत अपरम्पार है !” इस सत्य को लक्ष्य करके __ ही जैन कवि कहते है किः
"जो जगके सुखमें सुख होवहि, तौ किम् कानन जावहिं राजा; कोटि विलास तजहिं किहि कारण,छांदहिं वे किम राज समाजा। सूझ पर जवही उनको, निजका घर ध्यान सुधारहिं काजा; रे मन ! तोहि न सूझ परै, जगके सुखचाह न लागत लाजा"।।
युवक महावीर ने इस सत्य का सनन और अनुभव किया था। उन्होंने उसके अनुसार अपने जीवन प्रवाह को बदलना स्वीकार कर लिया। राजकीय ऐश्वर्य और विलासकी प्रचुर सामग्री उन्हे मोहित न रख सकी। तीस वर्ष की अवस्था मे उनके अन्तर्जगत् मे एक क्रान्ति उपस्थित हुई । वह विचारने लगे कि "मैं तीन ज्ञान नेत्र रखता हूँ, आत्मज्ञानी हूँ, फिर भी मैंने एक मूर्ख के समान अपने जीवन का इतना अमूल्य समय वृथाही गृहस्थाश्रममे रह कर खो दिया । अब अविलम्ब महासंयम को धारण करना ही उपादेय है।" पूर्व जन्मान्तरों के दृश्य उनके आगेनाचने लगे, जिनसे उनका निश्चय हद हो गया ।
निस्सन्देह लोकमे त्याग, संयम और सत्यानुष्ठानके विना सफलता प्राप्त नहीं होती है । सामान्य कार्यों की सफलता के लिये जब इन बातों की आवश्यकता है, तब परमसुख पाने के लिय-प्रात्मरत्न को प्रकाशित करने के लिये कितने न बड़े त्यान-वैराग्य और संचमानुष्टान की आवश्यकता होगी ? इसीलिये एक दिन राजकुमार महावीर महान् अनुष्ठान करने के लिचे तुल पडे । वह मंगसिर शुला दशमी का शुभ दिन था। उस दिन दर्शकों पी र ध्वनि मे सांसारिक सुखों को लात मार