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कर सकती हैं। पर वह भी सच्चा सुख नहीं दे सकती हैं । सुख पाने के लिये तो हममे से प्रत्येक को स्वयं स्वावलम्बी होकर प्रयत्नशील होना चाहिये । इस वातको हमारी भाषा भलीभांति सिद्ध करती है ! देखिये, जिसदिन हमें सुख मिलता है, उस दिन उसे व्यक्त करने के लिये हम क्या कहते है ? हम यही कहते हैं न कि 'हमने अपना खूब श्रानन्द भोगा । ' ( 'We say, we have enjoyed ourselves' ) हमारी मातृभाषा का यह सम्वोधन विशेष अर्थको लिये हुये हैं । हमारा सुख हम पर ही निर्भर है ।"
निस्सन्देह यह सुख हमारी आत्मा मे ही मौजूद है - हमे वाहर भटकने और नये २ मार्गों को ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है । पार्थिवता का मूल्य जीवन में कुछ नहीं है-आत्मिकता ही कीमती चीज़ है । 'कोहेनूर हीरा' अकेला ही बड़ा कीमती हैकहते हैं साढ़े पाच करोड़ रुपये उसका मूल्य है । किन्तु नेत्रहीन के लिये उसका मूल्य कुछ भी नहीं है । नेत्र ही नहीं तो जग ही नहीं, फिर भला कोहेनूर हीरे का मूल्य उसके निकट कानी कौड़ी भी न हो तो आश्चर्य ही क्या ? अब सोचिये, हीरा ज्यादा कीमती हुआ या नेत्र ? फिर जरा आगे विचारिये कि नेत्र से भी अधिक मूल्यमयी वह आत्मोपयोग है जो नेत्र-दर्शन के भाव को ग्रहण करता है । यदि शरीर में वह अमोल आत्मरत्न न हो तो नेत्र भी व्यर्थ हैं । अतएव लोक मे सर्वश्रेष्ठ मूल्य और महत्व का पदार्थ आत्म-रत्न ही है । तत्ववेत्ता लालन कहते हैं कि " आश्चर्य तो यह है कि इस ऐहिक कोहेनर में वाह्य पदार्थों में मनुष्य मोह रहा है, परन्तु नेत्र रत्न की कीमत नहीं जानता है । कदाचित उसकी कीमत भी जान लेता है तो आत्मरत्न की फीनत नहीं जानता है और न उसकी दरकार करता है । किन्तु यदि वह अन्तर्हा बन जाय तो वह उस आत्मा के दर्शन करें
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