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( २ ) रानी त्रिशला ने कहा, "बेटा! यह ठीक कहते हो मैं जानती हूं, तुम्हारा अवतार लोक कल्याण के लिये हुआ है । परन्तु अभी तो तुम्हारी युवावस्था है। यह गृहस्थाश्रममें प्रवेश करने का अवसर है। राजकुमारी यशोदा से विवाह करके गहत्य धर्म का आदर्श स्थापित करो, यह भी एक कर्तव्य है। उपरान्त धर्मतीर्थ की स्थापना करना!
महावीर तिलमिला उठे और दुःखी संसार का चित्र उनके नेत्रों के आगे उपस्थित हो गया । वह वोले, "मॉ, क्या कहती हो। इस आय-काय का क्या भरोसा ? संसार में फंसे रहना हो तो स्त्री-मोह में कोई पड़े ? सो! मुझसे यह नहीं होगा !"
माता त्रिशला यह सुनकर चप हो रहीं। उनका हृदय पुत्रस्नेह से ओतप्रोत था-वह नहीं चाहती थीं कि उनके आग्रह से उनके सुकुमार परन्तु विवेकी पुत्र के मन को ठेस पहुंचे। वह कुमार सहावीर की बातों पर विचार करने लगीं। उनके नेत्रों के आगे संसार-स्वरूप का करुण दृश्य खिंच गया। उनके हृदय ने कहा, "कुमार ठीक कहते हैं । लोक अन्धा हो रहा है। उसे सन्मार्ग पर लाने के लिये प्रकाश की जरूरत है। आयु सीमित है-काय क्षण भंगुर है। अच्छा है, जो भी त्वपर कल्याण बन पड़े।" राजकुमार वर्द्धमान महावीर के निश्चय की खवर चहुं भोर फैल गई । हताश होकर जितशत्रु राजा भी कलिङ्ग को लौट गये।
राजकुमार महावीर वाल ब्रह्मचारी रहे। कौमारावस्थामें उन्होंने राजसूत्रसंचालनमें नृप सिद्धार्थ का हाथ बंटाया। वह घर में वैसे ही रहे जैसे कमल जल से अलहदा रहता है।