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. सामाजिक संदर्भ
सिद्ध हुए। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के प्रति शंकालु और भयभीत हो गया और शीत युद्ध के रूप में भय का प्रावल्य हो गया। इसका भयंकर परिणाम समाज पर भी पड़ा । भौतिक उन्नति की तृष्णा के कारण लोगों में अपराववृत्ति इस चरम सीमा पर पहुंच गई कि आज अनैतिकता ही नैतिकता, बेईमानी ही ईमानदारी और असत्य ही सत्य जैसा बनने लगा। आए दिन होने वाली राहजनी, वध, हत्याएं, चोरी, डकैती, लुटमार और बलात्कार की घटनाएं नित्य प्रति के समाचार पत्रों के विपय वन गए जिन्हें पढ़ मुनकर ऐसा लगने लगा जैसे देश में अनुशासन समाप्त हो गया, कानून और नियम का कोई महत्त्व नहीं रह गया, सर्वत्र जैसे अराजकता व्याप्त हो गई। इससे लोगों की धार्मिक वृत्ति समाप्त प्रायः होकर अधार्मिक प्रवृत्ति प्रबल होने लगी। आचार-विचार भी तदनुकूल होने लगे। संक्षेप में भौतिकवाद आज- जितना अधिक प्रधान होता जा रहा है, अनैतिकता की जडें हमारे जीवन में उतनी ही अधिक गहरी होती जा रही हैं। सामाजिक अव्यवस्था :
__ इस अनैतिकता ने समाज, राजनीति और धर्म आदि सभी को कुप्रभावित किया है। बढ़ती हुई इस अनैतिकता के कारण हमारी सम्पूर्ण समाज-व्यवस्था, समाज की मर्यादाएं आदि सभी भंग हो गई हैं। चोर बाजारी, काला वाजारी, अधिक लाभ की प्रवृत्ति और धन-धान्य के एक स्थान पर संचित हो जाने से समाज · में अनेक कुप्रवृत्तियां जन्म लेने लगी हैं । खाद्य-पदार्थों में मिलावट, नकली औपधियां, कमरतोड़ महंगाई आदि इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जहां धन का आधिक्य हो गया वहां धनिक लोग धनमद में डूबकर नाना प्रकार के दुर्व्यसनों के शिकार होने लगे, और जहां निर्धनता है, वहां भी लोग व्यभिचार, चोरी-डकैती, लूटमार और हत्या जैसे जघन्य पाप-कर्मों में प्रवृत्त होने को विवश हो गए है। राजनैतिक भ्रष्टाचार : ।। .
राजनीति की भी बड़ी दुर्दशा हो गई। राजनीति नीति न होकर अनीति बन गई है। आज की राजनीति ने सर्वत्र अविश्वास की भावना उत्पन्न करदी है। जनतंत्र के युग में जहां समाज और देश के हित की चिन्तना होना चाहिए थी, वहां वैयक्तिक स्वार्थ, पदलोलुपता और भाईभतीजावाद पनपने लगा है। जहां इन राजनीतिनों को समाज और देश के हित की चिन्ता होनी चाहिए थी, वहां वे अपने पद, स्थान और कुर्सी आदि की चिन्ता अधिक करने लगे। इस व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि के कारण छोटे से लेकर बड़े-से-बड़े पदाधिकारी भी पथभ्रप्ट हो गए हैं। उत्कोच आदि का भ्रष्टाचार पनपने लगा है। परिणामतः समाज और देश में व्यवस्था, कानून आदि के स्थान पर अव्यवस्था और अशान्ति दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। धार्मिक अनास्था :
धर्म की तो दुर्दशा ही समझिए । अव तो धर्म का नाम सुनते ही लोगों की नाकभौंह सिकुड़ने लगती है जैसे धर्म मानो कोई घृणाजन्य वस्तु है। धार्मिक आस्था और निप्ठा सम्पप्त होने से हमारे नैतिक आचरणों, आत्म-चरित्र पर बड़ा कुठाराघात हुआ है।