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सामाजिक संदर्भ
शुद्धता और प्रमाणिकता का ध्यान रखना उसका कर्तव्य है । परिवार को आर्थिक सम्पन्नता की ओर ले जाने वाली सदस्यों की प्रवृत्ति अपरिहार्य है, किन्तु असीम संचय की दूपित प्रवृत्ति पारिवारिक सुखों को नष्ट कर देती है। संचय की दूषित प्रवृत्ति से पीड़ित व्यक्ति परिवार के सदस्यों के सुख-दुःख में साझीदार न बनकर मात्र अपने को सम्पत्ति उपार्जन करने वाली मशीन समझता है।
वर्तमान युग में परिवारों में आर्थिक सम्पन्नता की प्रतिस्पर्धा व्याप्त है। निरन्तर धन की चिन्ता करने वाले अनेक व्यक्ति स्वजनों को उचित समय नहीं दे पाते, इससे सुख घटता है, स्नेह चुकता है और विघटन की प्रवृत्ति का जन्म होता है । विघटन होने की स्थिति में पति-पत्नी और परिवार के सदस्यों में आन्तरिक रिक्तता का जन्म होता है। अंतः मात्र सम्पत्ति को सुख का साधन अथवा प्रतिप्ता समझना निरी मूर्खता है। भगवान् महावीर ने इसी लिये मूर्छा अर्थात् प्रासक्ति को परिग्रह कहा है। भौतिक पदार्थों में आसक्ति मिथ्या है । संचय की दूपित प्रवृत्ति को नियन्त्रित करने का परिग्रह परिमाण के रूप में उपदेश दिया । श्रमणों के लिये पूर्ण परिग्रह का त्याग शरीर तक से ममत्व का परित्याग करना विहित है । गृहस्थ को परिवार, समाज और राष्ट्र के सुखों के लिये परिग्रह परिमाण आवश्यक है । संचय की प्रवृत्ति सामाजिक, नैतिक और राष्ट्रीय नियमों के अतिक्रमण हेतु प्रेरित करती है । व्यक्ति को चिन्तित एवं स्वास्थ्यविहीन बना देती है। परिग्रह के परिमाण का निर्धारण इस वृत्ति को रोकता है। परिग्रह परिमाण का स्थिरीकरण सुख, शान्ति और परिवार की समृद्धि की कसौटी है । भगवान् की वाणी का प्रत्येक शब्द आदर्श परिवार की संरचना में उपयुक्त है। स्यावाद : दैनिक व्यवहार की आवश्यकता :
विचारों से आचरण प्रभावित होता है और आचरण से विचार । भगवान् महावीर वैचारिक क्रान्ति के युगदृष्टा थे । परिवार के विघटन और परिवार में अशान्ति का मुख्य कारण होता है एक दूसरे के दृष्टिकोण को न समझना। वैचारिक सहिष्णुता के लिये भगवान् महावीर ने अनेकान्त-स्याद्वाद का सिद्धान्त विशाल विश्व को दिया। व्यक्ति जिस सत्य को समझता है, वह पूर्ण नहीं, आंशिक सत्य है । वह उसके ज्ञान और मान्यताओं का सत्य है । वस्तु के अन्य पक्ष भी सत्य हैं । वस्तु अनेकधर्मी है, व्यक्ति उस वस्तु के एक धर्म या आंशिक सत्य को देखता है । दूसरे के दृष्टिकोण को समझकर आचरण करना परिवार के सदस्यों का प्रथम कर्तव्य है । स्याद्वाद का सिद्धान्त दर्शन की गूढ़ता नहीं, दैनिक व्यवहार की आवश्यकता है । यह सत्य को समझने की कुन्जी है जो व्यक्ति के स्वस्थ दृष्टिकोण के निर्माण में सहायक होती है और समस्याओं को सुलझाने में उसकी भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है। कर्म-सिद्धान्त : पारस्परिक सौहार्द का प्रेरक :
___ढप मानसिक अशान्ति का जनक है। ईर्ष्या और प्रतिशोध उसकी सन्तानें हैं। प्रतिशोध और दुर्भावनाओं को वह पल्लवित करता है । परस्पर कटुता को आदर्श परिवार में कहीं स्थान नहीं है । प्रायः यह देखने में आता है कि पूर्ण योग्यता होते हुए, अपेक्षित पुरुपार्थ करते हुए भी योग्यता और पुरुषार्थ के अनुरूप प्रतिफल प्राप्त नहीं होता।