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भगवान् महावीर की मांगलिक विरासत
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NAYJAANTI---
में सिद्धार्थ-नंदन का समावेश हो ही जाता है । इसके अलावा इसमें उनके सदृश सभी शुद्धबुद्ध चेतनाओं का समावेश होता है । महावीर में जात-पांत या देश-काल का कोई भेद नहीं। वे वीतरागाद्वेत-रूप से एक ही हैं।
भगवान महावीर ने जो मंगल विरासत हमें सौंपी है, वह उन्होंने केवल विचार में ही संगृहीत नहीं रखी, जीवन में उतार कर परिपक्व करने के बाद ही उन्होंने उसे हमारे समक्ष रखा है।
__भगवान् महावीर द्वारा प्रदत्त विरासत को संक्षेप में चार विभागों में बांट सकते हैं : (१) जीवन-दृष्टि, (२) जीवन-शुद्धि, (३) जीवन-पद्धति में परिवर्तन और (४) पुरुपार्थ । (१) जीवन-दृष्टि:
हम प्रथम यह देखें कि भगवान् की जीवन-दृष्टि क्या थी । जीवन की दृष्टि यानी उसके मूल्यांकन की दृष्टि । हम सब अपने-अपने जीवन का मूल्य समझते हैं। जिस परिवार, जिस गांव, जिस समाज और जिस राष्ट्र के साथ हमारा सम्बन्ध हो, उसके जीवन की कीमत भी समझते हैं । उससे आगे बढ़कर पूरे मानव-समाज की ओर उससे भी आगे जा कर हमारे साथ सम्बन्ध रखने वाले पशु-पक्षी के जीवन की भी कीमत समझते हैं । किन्तु महावीर की स्वसंवेदन दृष्टि उससे भी आगे बढ़ी हुई थी। वे ऐसे धैर्य-संपन्न और सूक्ष्म-प्रज्ञ थे कि कीट-पतंग तो क्या, पानी-वनस्पति जैसी जीवन-शून्य मानी गयी भौतिक वस्तुओं में भी उन्होंने जीवन तत्त्व देखा था । महावीर ने अपनी जीवन-दृष्टि लोगों के सामने रखी, तब यह नहीं सोचा कि कौन उसे ग्रहण करेगा। उन्होंने इतना ही सोचा कि काल निरवधि है, पृथ्वी विशाल है, कभी तो कोई उसे समझेगा ही।
___ महावीर ने अपने प्राचीन उपदेश-ग्रंथ आचारांग में यह बात बहुत सरल भाषा में रखी है । और कहा है कि हर एक को जीवन प्रिय है, जैसा हमें खुद को। भगवान् की सरल और सर्वग्राह्य दलील इतनी ही है, 'मैं आनन्द और सुख चाहता हूं, इसलिए मैं खुद हूं। फिर उसी न्याय से प्रानन्द और सुख चाहने वाले अन्य छोटे-बड़े प्राणी भी होंगे। ऐसी स्थिति में यह कैसे कह सकते है कि मनुष्य में ही प्रात्मा है, पशु-पक्षी में ही आत्मा है और दूसरों में नहीं है ? कीट-पतंग तो अपनी-अपनी पद्धति से सुख खोजते ही हैं । सूक्ष्मतम वानस्पतिक जीवसृष्टि में भी संतति, जनन और पोपण की प्रक्रिया अगम्य रीति से चलती ही रहती है। भगवान् की यह दलील थी और इसी दलील के आधार पर से उन्होंने पूरे विश्व में अपने जैसा ही चेतन तत्त्व भरा हुआ, उल्लसित हुआ देखा । उसको धारण करने वाले तथा निभाने वाले शरीर और इन्द्रियों के आकार-प्रकार में कितना भी अंतर हो, कार्यशक्ति में भी अंतर हो, फिर भी तात्विक रूप से सर्व में व्याप्त चेतनतत्त्व एक ही प्रकार से विलास कर रहा है। भगवान् की इस जीवन-दृष्टि को हम आत्मौपम्य दृष्टि कहेंगे । तात्विक रूप से, जैसे हम है वैसे ही छोटे-बड़े सर्व प्राणी हैं। जो अन्य जीवप्राणी रूप हैं, वे भी कभी विकास-क्रम में मानव-भूमि को स्पर्श करते हैं और मानव-भूमिप्राप्त जीव भी अवक्रांति-क्रम में कभी अन्य प्राणी का स्वरूप धारण करते हैं। इस प्रकार की उत्क्रांति और अवक्रांति का चक्र चलता रहता है, लेकिन उससे मूल चेतन तत्त्व के