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सामाजिक संदर्भ
गति से चलते रहते हैं, वरना रास्ते से भटक जाना उनके लिये प्रासान होता है । तो जी लोग प्रवुद्ध होते है वे स्वयं भ्रष्ट न होकर अपनी सत्चेतना को जागृत रखते हुए यदि ऐसी सामाजिक स्थितियां बनायें जो सामान्य जन के नैतिक विकास को प्रोत्साहित करती हों तो वह सर्नथा वांछनीय माना जायगा । नये मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा :
वर्तमान विषमता की कर्कश ध्वनियों के वीच आज साहस करके समता के समरस स्वरों को सारी दिशाओं में गुजायमान करने की आवश्यकता है। सम्पूर्ण मानव समाज ही नहीं, समूचा प्राणी समाज भी इन स्वरों से पाल्हादित हो उठेगा। जीवन के सभी क्षेत्रों में फैली विषमता के विरुद्ध मनुष्य को संघर्ष करना ही होगा क्योंकि मनुष्यता का इस विषम वातावरण में निरन्तर ह्रास होता ही जा रहा है ।
यह ध्र व सत्य है कि मनुष्य गिरता, उठता और बदलता रहेगा किन्तु समूचे तौर पर मनुष्यता कभी समाप्त नहीं हो सकेगी और आज भी मनुष्यता का अस्तित्व डूबेगा नहीं । वह सो सकती है, मर नहीं सकती और अब समय आ गया है जब मनुप्यता की सजीवता लेकर मनुप्य को उठना होगा-जागना होगा और क्रान्ति की पताका को उठाकर परिवर्तन का चक्र घुमाना होगा। क्रान्ति यही कि वर्तमान विषमताजन्य सामाजिक मूल्यों को हटाकर समता के नये मानवीय मूल्यों की स्थापना की जाय । इसके लिये प्रवुद्ध एव युवा वर्ग को विशेष रूप से आगे आना होगा और व्यापक जागरण का शंख फूंकना होगा ताकि समता के समरस स्वर उद्भूत हो सकें। समता-दर्शन का नया प्रकाश :
सत्यांशों के संचय से समता दर्शन का जो सत्य हमारे सामने प्रकट होता है, उसे यथा-शक्ति यथासाध्य सबके समक्ष प्रस्तुत करने का नम्र प्रयास यहां किया जा रहा है। यह युगानुकूल समता-दर्शन का नया प्रकाश फैला कर, प्रेरणा एवं रचना की नई अनुभूतियों को सजग बना सकेगा। समता दर्शन को अपने नवीन एवं सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य में समझने के लिये उसके निम्न चार सोपान बनाये गये है :
(१) सिद्धान्त-दर्शन-मानव ही नहीं, प्राणी समाज से सम्बन्धित सभी क्षेत्रों में यथार्थ दृष्टि, वस्तुस्वरूप, उत्तरदायित्व तथा शुद्ध कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान एवं सम्यक्, सर्वागीण व सम्पूर्ण चरम विकास की साधना समता सिद्धान्त का मूलाधार है । इस पहले सोपान पर, पहले सिद्धान्त को प्रमुखता दी गई है।
(२) जीवन-दर्शन-सबके लिये एक व एक के लिये सब तथा जीयो व जीने दो के प्रतिपादक सिद्धान्तों तथा संयम-नियमों को स्वयं के व समाज के जीवन में प्राचरित करना समता का जीवन्त दर्शन करना होगा।
(३) प्रात्म-दर्शन-समतापूर्ण आचार की पृष्ठभूमि पर जिस प्रकाश स्वरूप चेतना का आविर्भाव होगा, उसे सतत् व सत्साधना पूर्ण सेवा तथा स्वानुभूति के बल पर पुष्ट