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जीवन, व्यक्तित्व और विचार
भगवान् महावीर का मुख्य संदेश है। मुनियों के लिये तो जीवन धारण करने के लिये अत्यल्प आवश्यकतायें होती हैं पर श्रावकों के लिए भी सातवें व्रत में भोग और उपभोग की वस्तुओं का अनावश्यक संग्रह का निपेष है। उस व्रत का नाम है भोगोपभोग परिणाम व्रत । आठवां व्रत है-अनर्थ दण्ड । वास्तव में प्रयोजनीय, जरूरी संग्रह एवं काम तो बहुत थोड़े होते हैं व्यर्थ की आवश्यकताओं को बढ़ाकर तथा मन, वचन, काया की प्रवृत्तियों का दुरुपयोग करके मनुष्य पाप बन्ध करते रहते हैं इसलिए उन पर रोक लगाई गई है।
मैत्री और क्षमा भाव :
समभाव की साधना एवं पाप-प्रवृत्ति के पश्चाताप के लिए सामायिक प्रतिक्रमण करने का विधान है। वास्तव में यात्म-निरीक्षण और आत्मालोचन प्रत्येक व्यक्ति के लिये बहुत ही आवश्यक और लाभदायक हैं। बहुत बार असावधानी या परिस्थितिवश न करने योग्य कार्य मनुष्य कर बैठता है। दूसरों से वैर-विरोध बढ़ा लेता है। इसलिये सामायिकप्रतिक्रमण में प्रतिदिन सब जीवों से खमतखामणा करने का विधान है। निम्न गाथा द्वारा इस भाव को वडे सुन्दर रूप में व्यक्त किया गया है
खामेमि सबे जीवा, सब्बे जीवा खमन्तु मे । मित्तिमे सव्वे भुएसु, वैरं मझ न केणई ।
मैं सब जीवों से क्षमा चाहता हूं और क्षमा देता हूं। किसी के साथ भी मेरा वैर विरोध नहीं है, सबके साथ में अच्छा मैत्रीभाव है।
इस भावना का प्रचार जितना अधिक होगा उतना ही विश्व का मंगल होगा। प्रत्येक व्यक्ति यदि शुद्धभाव से दूसरों से अपने अपराधों, अनुचित व कटु व्यवहार के लिये क्षमा मांग ले और अपने प्रति हुए ऐसे व्यवहारों के लिये दूसरों को क्षमा करदे, किसी के साथ वैर विरोध न रखकर सबके साथ मैत्रीभाव रखने लगे तो इस विश्व का स्वरूप ही वदल जायगा । आवश्यकता है भगवान महावीर के इन शाश्वत संदेशों को जन-जन में प्रचारित करने की, नियमित रूप से आत्म-निरीक्षण का अभ्यास डालने की।
व्यक्ति स्वयं अपने विकास का उत्तरदायी :
व्यक्तियों का समूह ही समाज है । व्यक्ति सुधरेगा तो समाज भी सुधर जायगा। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति में सद्गुणों का अधिकाधिक विकास हो। अवगुण या दोषों का ह्रास हो । इसके अनेक उपाय भगवान महावीर ने बतलाये हैं। जैनधर्म वीतराग होने का संदेश देता है। राग, द्वेप ही कर्म के बीज हैं, और कर्मों के कारण से ही दु.ख क्लेश और विभिन्नतायें हैं । कर्म जो करता है उसका फल उसे भोगना ही पड़ेगा। इसलिए बुरे कामों से बचा जाय । आत्मा ही अपना शत्रु और वही अपना मित्र है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण वात भगवान महावीर ने कही है । जैनधर्म में ईश्वर को कर्ता, हर्ता एवं सृष्टि का संचालक नहीं माना गया, प्रत्येक व्यक्ति ही स्वरूपतः ईश्वर या परमात्मा है। वह स्वयं ही कर्मों का