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भगवान् महावीर के शाश्वत संदेश
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'है. जितने कि २५०० वर्ष पहले थे, क्योंकि मानव स्वभाव में कोई मौलिक अन्तर नहीं हुआ है । सामयिक परिस्थितियों का प्रभाव तो पड़ता रहता है यतः प्रवृत्तियों में बाह्य श्रन्तर और न्यूनाधिकता नजर ग्राती है, पर मूल भूत स्वभाव और गुणदोप तो सदा करीव करीव वही रहते हैं । यहां भगवान् महावीर के शाश्वत संदेशों पर विचार किया जा रहा है ।
पारस्परिक सद्भाव :
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मानव केला जन्मता है और अकेला ही जाता है । पर उसका मध्यवर्ती जीवन बहुत कुछ दूसरों के सहयोग पर आधारित है । माता-पिता, कुटुम्बं परिवार, समाज, जाति, "देश, राष्ट्र के लोगों से उसका सम्पर्क बढता है तो अनेक वातें उनसे ग्रहण करता है । इसी तरह उससे भी अन्य लोग ग्रहण करते हैं । महापुरुषों ने ग्रहमा या प्रेमधर्म का प्रचार इसीलिये किया कि पारस्परिक हिंसा, कटुता, क्लेश और व्यक्तिगत स्वार्थ मानव समाज को - छिन्न-भिन्न कर देते हैं । ग्रतः महावीर ने अहिंसा धर्म का उपदेश देते हुये कहा कि - सभी जीव जीना चाहते हैं और सुख चाहते हैं, इसीलिए किसी को मारो मत, न कष्ट दो उन्हें अपने ही समान समभो । इस ग्रात्मीय भाव का विस्तार ही ग्रहिंसा है । इसकी आवश्यकता सव समय थी और रहेगी, क्योंकि मनुष्य में हिंसा का भाव सदा बना रहता है और उससे उसका और समाज तथा राष्ट्र का बहुत नुकसान होता है । हिंसा, अशांति का मूल है । हिंसा के संस्कार एक जन्म तक ही नहीं, अनेक जन्मों तक चलते और वढते रहते हैं । ग्राज एक निर्वल व्यक्ति को या राष्ट्र को किसी सवल ने सताया, दबाया तो परिस्थितिवश उसे चाहे सहन करना पड़े, पर जब भी उसे मौका मिलेगा तब बदला लेने का प्रयत्न करेगा ही । श्राजका मवल कल निर्वल बन सकता है इसी तरह आजका निर्बल, कल सबल बन सकता है । जहां तक अहिंसक भाव को नही अपनाया जायेगा, वैर-विरोध की परम्परा चलती ही रहेगी ! जो मुख-सुविधाएं मनुष्यं ग्रपने लिए चाहता है, वही दूसरों के लिए भी चाहता व देना रहे 'तो संघर्ष नही होगा । सहस्रस्तित्व के लिए पारस्परिक सद्भाव की बहुत ही श्रावश्यकता है । दूसरे प्राणियों को भी अपने ही समान आगे बढ़ने और सुख शान्ति से जीवन-यापन करने की सुविधा देने से ही शांति मिल सकेगी । व्यक्ति अपने स्वार्थ को भूल कर सबके प्रति समभाव र आत्मीय भाव रखे, तो कटुता, संघर्ष, श्राक्रमरण, युद्ध, दूसरों की भूमि, सत्ता और धन पर लोलुपभाव नहीं रखा जाय तो विश्व में शांति सहज ही स्थापित हो सकती है । पारस्परिक सद्भाव और ग्रात्मीय भाव व्यक्ति, समाज और राष्ट्र सभी के लिए लाभदायक है 1
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समविभाजन और समाज-संतुलन :
अपने पास भूमि धन वस्तुएं आदि अधिक है, और दूसरो को उनकी श्रावश्यकता है तो उनको वे वस्तुएं दे दी जाये जिससे उनको वस्तुओंों के प्रभाव से दुख न हो, ईर्ष्या न हो । आखिर एक के पास आवश्यकता से बहुत अधिक संचय होगा और दूसरा प्रभाव के कारण कष्ट उठाता रहेगा, तो संघर्ष अवश्यम्भावी हे । इसलिये समविभाजन करते रहना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है ताकि समाज मे सतुलन बना रहे । श्रावश्यकताओ को कम करते जाना