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महावीर : क्रान्तद्रष्टा, युगसृष्टा
• आचार्य रजनीश
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गैर साम्प्रदायिक चित्त :
महावीर से ज्यादा गैर साम्प्रदायिक चित्त खोजना कठिन है। वे गैर साम्द्रायिक हैं, क्योंकि शायद सारी पृथ्वी पर ऐसा दूसरा आदमी ही नहीं हुआ जिसके पास इतना गैरसाम्प्रदायिक चित्त हो । इसलिए कि जो किसी बात को सापेक्षता की दृष्टि से सोचता है, उसकी दृष्टि में साम्प्रदायिकता नहीं हो सकती । विज्ञान के जगत् में सापेनताकी वात प्राइस्टोन ने अव कही, धर्म के जगत् में महावीर ने ढाई हजार माल पहले कही । बहुत कठिन था उस वक्त यह कहना, क्योंकि उस वक्त आर्यधारा बहुत टुकड़ों में टूट रही थी और प्रत्येक टुकड़ा पूर्ण सत्य का दावा कर रहा था । असल में साम्प्रदायिक चित्त का मतलब यह है कि जो यह कहता हो कि सत्य का ठेका मेरे पास है और किसी के पास नहीं, और सव असत्य है, सत्य मैं हूं। ऐसा जहां आग्रह हो, वहां साम्प्रदायिक चित्त है । लेकिन जहां इतना विनम्र निवेदन हो कि मैं जो कह रहा हूं वह भी सत्य हो सकता है, उससे भी सत्य तक पहुंचा जा सकता है, तो सम्प्रदाय निर्मित होगा, पर वहां साम्प्रदायिक चित्त नहीं होगा । इन अर्थों में सम्प्रदाय निर्मित होगा कि कुछ लोग उस दिशा में जायेंगे, खोज करेंगे, पायेंगे, चलेंगे, अनुगृहीत होंगे उस पन्थ की तरफ, उस विचार की तरफ । महावीर एकदम ही गैर माम्प्रदायिक चित्त हैं। बहुत ही अद्भुत है उनकी दृष्टि ।
__ महावीर की सापेक्षता भी एक कारण वनी महावीर के अनुयायियों की संख्या न बढ़ने में, क्योंकि संख्या वढ़ने में अन्धदृढता का होना जरूरी है, संख्या तब बढ़ती है, जब दावा पक्का और मजबूत हो कि जो हम कह रहे हैं, वही सही है और जो दूसरे लोग कह रहे हैं, सच नहीं । महावीर की बातों में संशय की रेखा मालूम पड़ती है । वह संशय नहीं है, सम्भावना है, लेकिन साधारण आदमी को यह समझना मुश्किल होता है कि सम्भावना और संशय में क्या फर्क है। गैर दावेदार व्यक्ति:
__ महावीर का कोई भी दावा नहीं है । इस जगत् में इतना गैर दावेदार श्रादमी ही नहीं हुआ। उसने सत्य को इतने कोणों से देखा है, जितना किसी ने कभी नहीं देखा । दुनिया में तीन सम्भावनाओं की स्वीकृति महावीर के पहले से चली ग्राती थी। सत्य के तीन कोण हो सकते हैं, १-है, २-नहीं है, ३-दोनों-नहीं भी और है भी। यह त्रिभंगी महावीर के पहले भी थी, लेकिन महावीर ने इसे सप्तमभंगी किया और कहा कि तीन से