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जीवन, व्यक्तित्व और विचार
तीन रूप हैं - (१) धार्मिक हिंसा, जो धर्म के नाम पर यज्ञ यागादि, पशुवलि स्त्री और शूद्रों के मानवीय अधिकारों का हनन, तथा उनके अपमान आदि के रूप में प्रचलित है । (२) राजनैतिक हिंसा में आक्रमण, सीमा संघर्ष, युद्ध लांछन, चरित्र हनन तथा आरोपप्रत्यारोप आदि का समावेश होता है । (३) सामाजिक हिंसा में शोपण वैयक्तिक इच्छात्रों की पूर्ति के लिये मर्यादाहीन संग्रह, जाति और वर्णभेद, दास प्रथा, दहेज आदि को समाज घातक कुरीतियां तथा धन सम्पत्ति के ग्राधार पर होने वाले छोटे-बड़े के मानदण्ड आदि की परिगणना होती है | भगवान् महावीर ने तीनों ही हिंसाओं के उन्माद से बचे रहने की मानव को हिंसा की विशुद्ध धर्म दृष्टि दी । महावीर का कहना था - हिंसा का समाधान प्रतिहिंसा नहीं, अहिंसा है । वैर से वर न कभी समाप्त हुआ है, और न होगा । वैर का सही प्रतिकार प्रेम एवं मैत्री है । ग्राग से ग्राग वुझी है कभी ? वह तो जल से ही बुझेगी । रक्त से रक्त को साफ करना कहां की बुद्धिमता है ?
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महावीर की हिंसा केवल करुणा पर आधारित नहीं है । महावीर अहिंसा का साक्षात्कार मैत्री में करते हैं । उनकी दृष्टि में मैत्री ही शुद्ध अहिमा है । करुणा की हिंसा कभी-कभी सामने वाले को बेचारा बना देती है । करुणा का स्वर है - ' अरे बेचारा गरीब मर रहा है, इसे बचायो ।' करुणा में रक्ष्य व्यक्ति नीचे होता है, और रक्षक ऊपर, किन्तु मैत्री में सब एक धरातल पर होते हैं । वहां न कोई नीचा होता है, और न कोई ऊंचा । सव बराबर हैं । यह मैत्री ही है, जो कृष्ण और सुदामा को सखा भाव के एक सम धरातल पर खड़ा कर देती है । इसीलिए महावीर ने कहा था - विश्व के प्राणियों के साथ विना किसी पक्ष-विपक्ष के मैत्री करो, दोस्ती रखो - 'मेति भूएसु कप्पए । आज विश्व मानवता को करुगा की हिंसा ही नहीं, मैत्री को ग्रहिसा की अपेक्षा है । प्राचार्य देववाचक के शब्दों में महावीर इमीलिए 'जगानंदी' हैं, 'जगनाहो' हैं और हैं - 'जगवन्धु ।'
महावीर की ऐतिहासिक उपलब्धि :
भगवान् महावीर की सामाजिक सन्दर्भ में एक और ऐतिहासिक एवं सर्वोत्तम उपलब्धि है - मानव को मानव के रूप में प्रतिष्ठा देना । भगवान् के दर्शन में मानव ही महान् है । मानव देवपूजक नहीं, अपितु देव ही मानवपूजक हैं उनके यहाँ । कहा है उन्होंने 'देवा वित नमंसंति, जस्स धम्मे सया मरणो' । जिसका अन्तर्मन धर्म में रमा है, उसके श्री चरणों में देव भी नत मस्तक हो जाते हैं । देवों की दासता से मानव को मुक्त करने वाला यही महामानव था, जिसे भारत के प्राचीन मनीषियों ने 'देवाधिदेव' कहा 1 देवावि-देव - देवों का भी देव ।
गया था ।
महावीर के युग में मानव मान्यताओं के बाह्य ग्रावरणों के नीचे दब पशु एक खूंटे से ही वांवा जाता है, पर मानव तो हजारों हजारों खूंटों से बंधा हुआ था । महावीर ने धर्म-सम्प्रदाय, जाति, वर्ण, वर्ग, लिंग, समाज और राष्ट्र श्रादि के कृत्रिम एवं परिकल्पित श्रावरणों को तोड़कर मानव को शुद्ध मानव के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान की, मानव की महत्ता को सर्वोपरि मान्यता दी । महावीर ने स्त्री और पुरुष, श्रार्य और अनार्य, ब्राह्मण और शुद्र आदि की कृत्रिम भेद रेखाओं को हटाकर, नष्ट कर धर्म को सव जन के