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રૂ૪૨
परिचर्चा
सापेक्षता का सिद्धांत प्रतिपादित किया था । आइन्सटीन ने दिक्-काल की निरपेक्ष पृथक्ता के विरुद्ध सापेक्षता का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। महावीर ने इसी सापेक्षता के सिद्धान्त को नयवाद अथवा अनेकान्तवाद के रूप में सभी निरपेक्ष सत्यों पर लागू किया। आइन्सटीन का सिद्धांत महावीर के सिद्धान्त से दो बातों में सीमित है। प्रथम यह कि आइन्सटीन ने केवल दिक्-काल की ही सापेक्षता स्वीकार की तथा अन्य किसी सत्य की नहीं। दूसरा यह कि उन्होंने सापेक्षता को केवल इसी अर्थ में लिया कि दिक्काल एक दूसरे में लय हो जाते हैं तथा निरपेक्षता खो बैठते हैं किन्तु महावीर का सापेक्षता का सिद्धान्त यह प्रतिपादित करता है कि किसी भी घटना अथवा वस्तु के विषय में अनेक मत हो सकते हैं तथा वे परस्पर विरोधी प्रतीत होते हुए भी अपने-अपने दृष्टिकोण से सत्य हो सकते हैं।
मार्क्सवाद क्रियात्मक दर्शन के रूप में स्वीकार किया जाता है । मार्क्स ने परिवर्तन को अधिक महत्त्व दिया । परिवर्तन क्रियाशीलता का प्रतीक है। अतः दर्शन का लक्ष्य परिवर्तन है जो मूलतः क्रियात्मक है। मार्क्स के दार्शनिक दृष्टिकोण को द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद कहा जा सकता है जिसके अनुमार सृष्टि का मूल सत्य पदार्थ है किन्तु पदार्थ, सदा परिवर्तनशील अवस्था में होने के कारण द्वन्द्वात्मक प्रणाली से ही जाना जा सकता है । भौतिकवादी, प्रत्यय तथा पदार्थ में, पदार्थ को अधिक महत्त्व देते हैं। महावीर के अनुसार भी द्रव्य सत् है, उसमें उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य के गुण हैं किन्तु महावीर ने मार्स के सदृश भौतिकवाद को न मानकर यथार्थवाद को माना है। इनके द्वारा प्रतिपादित द्रव्य, मार्क्स का जड़ पदार्थ नहीं है। महावीर ने छह प्रकार के द्रव्य स्वीकार किए जिनमें से पुद्गल केवल एक है । अन्य द्रव्य हैं-जीव, धर्म, अवर्म, आकाश और काल । इससे स्पष्ट ही है कि महावीर का यथार्थवाद, मार्क्स के भौतिकवाद से भिन्न है । मार्स ने अपने दर्शन में सामाजिक पक्ष को अधिक महत्त्व दिया तथा धर्म का विरोध करते हुए उसे अफीम की संज्ञा दी जबकि महावीर मनुष्य के व्यक्तिगत विकास तथा मोक्ष-प्राप्ति के मार्ग को अधिक महत्त्व देते हैं।
गांधी के विचारों में महावीर के दर्शन का प्रभाव कुछ सीमा तक देखा जा सकता है । राजनीतिक दार्शनिक होते हुए भी महावीर के समान गांधी का भी प्रमुख केन्द्र प्राचार- शास्त्र है । दोनों ने ही कर्म, अहिंसा तथा सत्य को जीवन के प्रमुख नैतिक नियम माने हैं किन्तु महावीर ने इन गुणों को व्यक्तिगत सद्गुण माना है जबकि गांधी ने इन्हें सामाजिक सद्गुणों का रूप दिया । सत्य तथा अहिंसा के सिद्धान्तों का गांधी ने जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रयोग किया-नैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक । महावीर के समान ही गांधी कठोर जीवन-अनुशासन में विश्वास रखते थे। दोनों ही विश्वास करते थे कि उच्चात्मा के अन्वेपण का नाम ही जीवन हैं। गांधी ने राजनीति का प्राध्यात्मीकरण किया तथा राजनीति की व्याख्या धार्मिक तथा नैतिक प्रत्ययों द्वारा की।।
४. महावीर की विचारधारा प्रत्येक क्षेत्र में, चाहे वह राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, व सामाजिक क्षेत्र हो, सहायक बन सकती है, शर्त केवल इतनी ही है कि उसे बदलते सन्दर्भो में मनोवैज्ञानिक एवं समाज-शास्त्रीय दृष्टिकोण से देखा जाय । स्वयं महावीर ने कहा था