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भगवान महावीर के पांच नाम और उनका प्रतीकार्थ
अपना एक-एक पल उसकी उपलब्धि में बिता गये हैं। क्या उनके पांचों नामों में सत्य को खोजने की वैज्ञानिक प्रक्रिया प्रतिविम्बित है ? है, मात्र इसके संश्लेपण की जरूरत है। (१) वर्द्धमान
सब जानते हैं सत्य एक सतत वर्द्धमान सापेक्ष दृष्टि है । सत्य की सत्ता से उसका स्वरूप क्रमशः उघड़ता है । जो सत्यार्थी है, उसे वर्द्ध मान बने रहने की जरूरत है, यानी उसे प्रगतिशील होना चाहिए । वर्द्ध मानता अर्थात् नामान्तर से प्रगतिशीलता, वर्द्ध मान रह कर ही सत्य को पाया जा सकता है। जो रुक गया है, अड़ गया है, या रूढ़ हुआ है, सत्य छलांग मारकर उसकी गोद से निकल गया है । सत्य एक अत्यंत संवेदनशील अनुभूति है, इसे पाने के लिए सतत वर्द्धमान, यानी प्रगतिशील होने की आवश्यकता है। जड़मति सत्य को पा नहीं सकता, जान नहीं सकता। इस तरह सत्य की पहली दिखायी देने वाली मुद्रा है साधु या मुनि, अर्थात् प्रयोगधर्मी साधक । रामोक्कार मन्त्र जहां पूर्ण विराम रख रहा है, सत्य की साधना का प्रारम्भ वहां से है । णमोक्कार शिखर से उतर रहा है, महावीर के पांच नाम शिखर पर चढ़ रहे हैं । एक जीवन का अवरोह-क्रम है, एक आरोह-क्रम, दोनों पूरक हैं।
गमो लोए सब्बसाहणं-लोक में सारे प्रयोगधर्मी साधकों को नमस्कार, अर्थात् उन साधुओं को नमन, जो सत्य की खोज में निकल पड़े हैं, यानी लोक के समस्त सत्यार्थियों को वन्दन, उनमें उत्पन्न वर्द्धमानता को चन्दन । इस तरह महावीर का पहला नाम है वर्द्धमान । यह नाम नहीं है, सर्वनाम है। णमोक्कार में कहीं कोई नाम नहीं है, सर्वनामों का ही व्यापक प्रयोग हुआ है।
___ महावीर में सम्यक्त्व की प्यार जहां से शुरू होती है, वहां से वे वर्द्धमान हैं। पिता सिद्धार्थ के लिए वे क्या थे? यह प्रश्न विल्कुल भिन्न है । वर्द्ध मानता का सन्दर्भ उनकी सिद्धार्थता के प्रारम्भ से है । (२) सम्मति
महावीर का दूसरा नाम है-सन्मति । वर्द्ध मानता सन्मति को जन्म देती है। गति में से मति को जन्म मिल जाता है और फिर ये एक दूसरे के सहयोग-सामंजस्य में परस्पर तीन होती रहती है । सद्गति सन्मति को जनमती है, सन्मति गति को वेग प्रदान करती है, तेज गति विशुद्ध मति को जन्म देती है और फिर ये सतत वर्द्ध नशील बनी रहती है, अविराम । सन्मति यानी विवेक-युक्त ज्ञान । गति के साथ चाहिए नियन्त्रण । अनुशासन या संयम की गैरहाजिरी में तेज से तेज गति भी अर्थहीन है । लगाम के अभाव में तराट अरवी घोड़ा व्यर्थ है। साधु को उपाध्याय के अनुशासन में चलना होता है। सन्मति जिसमें जम गई है, वह हुआ उपाध्याय । यह है णमोक्कार का नीचे में दूसरा चरणणमो उवज्झायणं । नमन उपाध्यायों को। या उन सारे साधुओं को नमस्कार जो एक कदम उठ कर उपाध्याय के सोपान पर आ गए हैं । सत्य को जानने की यह दूसरी सीढ़ी है । इस तरह णमोक्कार का चोथा चरण महावीर के जीवन का प्रारम्भिक दूसरा चरण है । प्रयोग के वाद उपलब्धियों के लिए अनुशासन ।