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भगवान महावीर की प्रासंगिकता
• डॉ० विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
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धर्म बनाम मूल्य:
'धर्म' शब्द संकुचित अर्थ में लिया जाए तो वह 'मजहब' या संकीर्ण सम्प्रदाय वन जाता है किन्तु यदि धर्म का अर्थ 'मूल्य' है, मानव मूल्य, तव धर्म व्यापक हो जाता है । तीर्थकर महावीर के जीवन और उपदेशों में मुझे कहीं कोई संकीर्णता नहीं दिखाई पड़ती। वे एक मानव मूल्य व्यवस्था की स्थापना करते हैं। धर्म शब्द के स्थान पर 'मूल्य' कर दीजिए तो महावीर की शिक्षाएं प्रासंगिक लगने लगती हैं। जब तक बुढ़ापा नहीं सताता, जव तक व्यधियां नहीं बढ़तीं, जब तक इन्द्रियां अशक्त नहीं होतीं, तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए।' इस वाक्य में 'धर्म' के स्थान पर मूल्य कर दीजिए तो वह आधुनिक व्यक्ति के लिए ग्रहणीय हो जाएगा।
__ महावीर के उपदेशों में इन्द्रियनिग्रह, अहिंसा, अभय और चेतना के उदात्तीकरण पर बल दिया गया है। प्रश्न यह है कि महावीर जीव दया पर इतना वल क्यों देते हैं ? क्यों वह कठोर संयम और निग्रह की प्रशंसा करते हैं ? संन्यास और वैराग्य को रेखांकित क्यों करते हैं ?
मेरी समझ से कोई महात्मा या महापुरुष अपने धर्म या मूल्य की स्थापना, सामाजिक सन्दर्भ को देख कर ही करता है। महावीर जिस समाज के अंग थे, वह समाज हिंसा, अपहरण, भोग विलास, स्वेच्छाचार, प्रलोभन और अत्याचार पर आधारित था । इतिहास और समाजशास्त्र साक्षी देता है कि तात्कालिक समाज, वर्गविभक्त समाज था। अनेक जातियों और उपजातियों में बंटा समाज, अहिंसा पर आधारित नहीं था, हिंसा पर आधारित था । यह हिंसा वह पुरोहित करता था जो सामान्य जन की आस्था और विश्वास का उपयोग कर अपनी जीविका चलाता था और व्यवहार में अपने द्वारा उपदेशित धर्म के विरुद्ध आचरण करता था। यह हिंसा, वह क्षत्रिय करता था जो अक्षत्रियों पर शस्त्र वल से अपने वर्ग का प्रभुत्व स्थापित करता था और कर, वेगार आदि द्वारा सामान्य जनता का शोपण करता था, यह हिंसा वह व्यापारी करता था जो अपने साहस और पूजी के बल पर साधारण लोगों का आर्थिक शोपण करता था।
१. दशवकालिक, ८१३६