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आधुनिक युग और भगवान् महावीर
• पं० दलसुख मालवरिया
विज्ञान और धर्म :
विज्ञान ने अपने प्रारम्भ में तो धार्मिक मान्यताओं का विरोध किया था और समझा जाने लगा था कि विनान और धर्म का कभी मेल नहीं हो सकता । एक अंश में यह वात सत्य भी थी क्योंकि पश्चिम में ही इस विज्ञान का उदय हया और वहां धर्म का तात्पर्य था केवल खिस्ती धर्म और उसकी मान्यताओं से । किन्तु जब पश्चिम के विद्वानों को भारतीय विविध धर्मों और उनकी परस्पर विरोधी मान्यताओं का परिचय होने लगा तो पहले यह स्थिति थी कि जो धार्मिक मान्यताएं खिस्ती धर्म से अनुकूल थी उन्हें तो वे धर्म के क्षेत्र में सम्मिलित करने को राजी हो गये किन्तु जैन और वौद्ध जिनकी ईश्वर विषयक मान्यताए ख्रिस्ती और कुछ वैदिक धार्मिक सम्प्रदायों से भी विरुद्ध थीं, उन्हें धर्म कैसे कहा जाय-यह उनकी समझ में नहीं आया । किन्तु जैसे धर्म की विविधता और उनमें ध्येय की एकता जब उन्होंने देखी तो वे जैन और बौद्ध धर्म भी धर्म हो सकते है और धर्म हैं-ऐसा मानने लगे। अव किसी को सन्देह नहीं रहा है कि जगनियंता और जगत्कर्ता ईश्वर को न मान कर भी धार्मिक वना जा सकता है। और इसलिए विज्ञान और धर्म में दिखाई देने वाले विरोध की खाई कम हो गई है। बाहरी भटकाव बनाम आन्तरजगत की खोज :
विज्ञान ने अब तक विशेप ध्यान वाह्य जगत् के निरीक्षण-परीक्षण में दिया है किन्तु अव जब वह बाह्य जगत् की मूल शक्ति की शोध तक पहुँच गया है तव उसका विशेष ध्यान प्रान्तर जगत् की ओर गया है। विज्ञान ने सुख-सुविधा के अनेक साधन जुटा दिये, इतना ही नहीं, किन्तु विकास के भी चरम सीमा के साधन जुटा दिये हैं। . परिस्थिति यह हुई है कि किसी एक अंगुली के गलत चलने पर अगुवम का विस्फोट होकर मनुप्य जगत् का क्षण भर में विनाश हो सकता है। वैज्ञानिकों ने इस मानव भक्षी तो क्या समत्र जीव भक्षी राक्षस को पैदा तो कर लिया अब उसे कैसे काबू में रखा जाय, यही समस्या पैदा हो गई है। चन्द्र और उससे भी परे मनुष्य पहुँच गया किन्तु अब उसे मालूम हुआ है कि वह वाहर ही भटक रहा है। उसने अपने भीतरी तत्व का तो निरीक्षणपरीक्षण किया ही नहीं। और जब तक वह इस अांतर-जगत् की खोज नहीं करतामानव या जीव जगत् की जो समस्या है उसका हल उसे मिल नहीं सकता है । अतएव