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सांस्कृतिक संदर्भ
कहां उठता है ? 'सूत्रकृतांग' में इस सम्बन्ध में निन्ति रूप में प्रतिपादित किया गया है कि प्रात्मा अपने स्वयं के उपाजित कर्मों से ही बंधता है तथा कृतको को भोगे बिना मुक्ति नहीं है।
प्राणी मात्र की पूर्ण स्वतंत्रता, समता एवं स्वावलम्बित स्थिति की विवेचना की जा चुकी है। अहिंसावाद पर आवारित क्षमा, मैत्री, स्वसंयम एवं पर-प्राणियों को प्रात्मतुल्य । देखने के विचार से परस्पर सौहार्द एवं बन्धुत्व की भावना जैन दर्शन में व्याख्यायित है । स्वल्प की दृष्टि से सभी प्रात्मानों को एक सी माना गया है। जैन दर्शन में यह भी निरूपित किया गया है कि जो ज्ञानी प्रात्मा इस लोक में छोटे बड़े सभी प्राणियों को प्रात्म तुल्य देखते हैं पटद्रव्यात्मक इस महान् लोक का सूक्ष्मता से निरीक्षण करते हैं तथा अप्रमत्तभाव से संयम में रत रहते हैं वे ही मोक्ष प्राप्ति के अधिकारी हैं।
जैन दर्शन अनेकान्तवादी दृष्टि पर आधारित होने के कारण किसी विशेष आग्रह से अपने को युक्त नहीं करता। सत्यानुसंधान एवं सहिष्णुता की पहली शर्त अनेकान्तवादी दृष्टि है। पक्षपात रहित व्यक्ति की बुद्धि विवेक का अनुगमन करती है। आग्रहीपुरुप तो अपनी प्रत्येक युक्ति को वहां ले जाता है जहां उसकी बुद्धि सन्निविष्ट रहती है
प्राग्रही वत् निनोपति युक्ति तत्र यत्र पतिरस्य निविष्ठा पक्षपात रहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र पतिरेति निवेगम्
-हरिभद्र प्रजातंत्रात्मक शासन व्यवस्था की प्राचार-मित्ति किसी विषय पर विविध दृष्टि से विचार करके सत्य पर पहुँचने के सिद्धान्त में निहित है। अनेकान्तवाद भी इस भूमि पर निर्मित है कि एक ही सीमित दृष्टि से देखने पर वस्तु का पूर्ण ज्ञान नहीं होता, प्रत्येक पदार्थ में अनन्त गुण धर्म होते हैं। सामान्य दृष्टि से सभी का ज्ञान एकदम सम्भव नहीं है।
आज के युग में वैज्ञानिक भौतिकवादी दर्शन एवं आध्यात्मिक दर्शन के सम्मिलन की अत्यधिक यावश्यकता है। इस दृष्टि से दर्शन के अद्वैत एवं विज्ञान के सापेक्षवाद की सम्मिलन भूमि जैन दर्शन का अनेकान्त हो सकती है । महावीर और आइन्स्टीन :
आज के महान् वैज्ञानिक आइंस्टीन के सापेक्ष्यवाद एवं जैन दर्शन का अनेकान्तवादी वारिक धरातल काफी निकट है। आइन्स्टीन मानता है कि विविध सापेक्ष्य स्थितियों में एक ही वस्तु में विविध विरोधी गुण पाये जाते हैं । सत्य दो प्रकार के होते हैं -
(१) सापेक्ष्य सत्य (Relative Truth) (२) नित्य सत्य (Absolute Truth)
याइन्स्टीन के मतानुसार हम केवल सापेक्ष्य सत्य को जानते हैं, नित्य सत्य का ज्ञान तो मर्व विश्व दृष्टा को ही हो सकता है।