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सांस्कृतिक संदर्भ
भावना विद्यमान रहती है । इसका कारण यह है कि परमात्मा से यह जगत पैदा होता है, उसमें ही ठहरता है तथा उसी में लय हो जाता है।
'जन्माद्यस्य यतः' इस प्रतिपत्तिका में भले ही जीव को सत्ता जैन दर्शन के समान शाश्वत, चिरन्तन स्वयंभूत, अखण्ड, अभेद्य, विन, कर्ता एवं अविनाशी न मानी जाये फिर भी वह 'अशी' जीव सृष्टि के अन्य समस्त मानवों में समान रूप से एक ही सत्ता के दर्शन तो करता है और इसी कारण हम यह देखते हैं कि भारतीय इतिहास में स्मृति-युग के पूर्व नमाज में वर्ग व्यवस्था तो थी किन्तु उन विभिन्न वर्गो का आधार उनका कर्म था, जन्म नहीं। 'श्रीमद्भागवत' तक इन विभिन्न वर्गों के प्रति सामाजिक दृष्टि से ममानता की भावना ही निहित मिलती है
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ब्राह्मण जाति के आधार नर नहीं प्रत्युत ब्रह्म को जानने के आधार पर ब्राह्मण माना जाता था
___ 'ब्रह्मजानाति ब्राह्मणः'
जो ब्राह्मण होकर भी तदुपरान्त ब्राह्मण का सा आचरण त्याग देते थे वे उसी जीवन में शूद्र हो जाते थे
योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् सा जीवन्नेव शूद्रत्वभाशुगच्छति सान्वयः।। कर्मो के व्यत्यय वा विपर्यय से ही वर्ण बदलते थेशूद्रो ब्राह्मणतामेति, ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम् । क्षत्रियो जात एवं तु विद्याद् वैश्यं तथैव च ॥
-मनुस्मृति . शूद्रोऽपि शील सम्पन्नो गुणवान् ब्राह्मणो भवेत् । ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः शूद्रादप्यवरो.. भवेत् ।।
-महाभारत
जव शांकर वेदान्त में केवल ब्रह्म को सत्य माना गया तथा जगत् को स्वप्न एवं मायारचित गन्धर्व नगर के समान पूर्णतया मिथ्या एवं असत्य घोपित किया गया, रज्जु में सर्प अथवा शुक्ति में रजत की भांति ब्रह्म से सत्य भासता हुआ मान लिया गया तो इस विचार दर्शन के कारण आध्यात्मिक-दर्शन एवं सामाजिक-दर्शन का सम्बन्ध टूट गया क्योंकि आध्यात्मिक साधकों के लिए जगत् को सत्ता हो असत्य एवं मिथ्या हो गयी। इसके परिणामस्वरूप दर्शन के धरातल पर तो "अद्वैतवाद" की स्थापना होती रही