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आधुनिक परिस्थितियाँ एवं भगवान् महावीर का संदेश
ग्राचार्यं समन्तभद्र ने अपने विचारों को व्यक्त करते हुए कहा कि सम्यक् दर्शन सम्पन्न चांडाल मानव से ही नहीं प्रत्युत देव से भी बढ़कर है -
सम्यग्दर्शन सम्पन्न, मपि मातंग देहजम् । देवादेवं विदुर्भस्म, गूढां गारान्तरोजसम् ॥
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार, २८ । उन्होंने आत्मा की स्वतंत्रता की प्रजातंत्रात्मक उद्घोषणा की। उन्होंने कहा कि समस्त आत्मायें स्वतंत्र हैं, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। उसके गुण और पर्याय भी स्वतंत्र हैं । विवक्षित किसी एक द्रव्य तथा उसके गुणों एवं पर्यायों का अन्य द्रव्य या उसके गुणों और पर्यायों के साथ किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है ।
इस दृष्टि से सव आत्मायें स्वतंत्र हैं, भिन्न-भिन्न हैं, पर वे एक सी अवश्य हैं । इस कारण उन्होंने कहा कि सब आत्मायें समान हैं, पर एक नहीं ।
स्वतंत्रता एवं समानता दोनों की इस प्रकार की परस्परावलम्बित व्याख्या अन्य किसी दर्शन मे दुर्लभ है ।
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उन्होंने यह भी कहा है कि यह जीव अपने ही कारण से संसारी बना है और अपने ही कारण से मुक्त होगा । 'नयचक्र' में इसी कारण कहा गया है कि व्यवहार से बंध और मोक्ष का हेतु ग्रन्य पदार्थ को जानना चाहिए किन्तु निश्चय से यह जीव स्वयं बंध का हेतु है और यही जीव स्वयं मोक्ष का हेतु है
वंधे च मोक्ख हेऊ अराणो, ववहारदो य गायव्वो । रिच्छदो. पुरण जीवो भंगियो खलु सव्वद रसीहि ।।
-नयचक्र २३५ ।
इस प्रकार जैन दर्शन में यह मार्ग बतलाया गया है जिससे व्यक्ति अपने वल पर उच्चतम विकास कर सकता है, प्रत्येक श्रात्मा अपने बल पर परमात्मा बन सकती है ।
वन्धप्प मोक्खो तुज्झज्झत्व
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उपनिपदों में जिस 'तत्वमसि' सिद्धान्त का उल्लेख हुआ है उसी का जैन दर्शन में नवीन प्रदिष्कार एवं विकास है एवं प्राणी मात्र की पूर्ण स्वतंत्रता, समता एवं स्वावलम्वित स्थिति का दिग्दर्शन कराया गया है । 'संसार में अनन्त प्राणी हैं और उनमें से प्रत्येक में जीवात्मा विद्यमान है । कर्मबन्ध के फलस्वरूप ये जीवात्मायें जीवन की नाना दशाओं, नाना योनियों, नाना प्रकार के शरीरों एवं अवस्थाओं में परिलक्षित होती हैं किन्तु सभी में ज्ञानात्मक विकास के द्वारा उच्चतम विकास की समान शक्तियां निहित हैं ।
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'आचारांग' में बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि बंधन से मुक्त होना तुम्हारे ही हाथ -
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जब सब प्राणी अपनी मुक्ति चाहते हैं पहुँच सकते हैं तथा कोई किसी के मार्ग में वाधक
-- आचारांग ५।२।१५०
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तथा स्वयं के प्रयत्नों से ही उस मार्ग तक नही तब फिर किसी से संघर्ष का प्रश्न हो