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महावीर ने कहा - सुख यह है, सुख यहां है
तुम्हें इच्छित वस्तु की प्राप्ति होगी और तुम सुखी हो जाओगे । ऐसा कहने वाले इच्छात्रों की पूर्ति को ही सुख और इच्छाओं की पूर्ति न होने को ही दुख मानते हैं ।
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सच्चा सुख इच्छात्रों के अभाव में :
भगवान् महावीर ने प्रतीन्द्रिय आत्मानंद का अनुभव करने के बाद स्पष्ट रूप से कहा कि इच्छाओं की पूर्ति में सुख नहीं है, यह तो सिर का बोझ कन्धे पर रखकर सुख मानने जैसा है । दूसरे इनकी पूर्ति संभव भी नहीं है, कारण कि अनन्त जीवों की अनन्त इच्छायें हैं और भोग-सामग्री सीमित है । नित्य वदलती हुई नवीन इच्छाओं की पूर्ति कभी संभव नहीं । श्रतः तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी, इच्छायें पूर्ण होंगी और तुम सुखी हो जाओगे, ऐसी कल्पनायें मात्र मृगमरीचिका ही सिद्ध होती हैं । न तो कभी सम्पूर्ण इच्छायें पूर्ण होने वाली हैं और न ही यह जीवन इच्छात्रों की पूर्ति कोई कहे जितनी इच्छायें पूर्ण होंगी उतना तो सुख होगा ही, ठीक नही है क्योंकि सच्चा सुख तो इच्छात्रों के अभाव में है, यदि यह कहा जाय कि इच्छा पूर्ण होने पर समाप्त हो जाती है अतः उसे सुख कहना चाहिए, यह कहना भी गलत है क्योंकि इच्छात्रों के प्रभाव का अर्थ इच्छाओं की पूर्ति होना नहीं, वरन् इच्छाओं का उत्पन्न ही नहीं होना है ।
से
सुखी होने वाला है । यदि
पूरा न सही, यह बात भी इच्छाओं की पूर्ति में नहीं ।
नहीं,
सुख का स्वभाव निराकुलता :
वह तो दुःख का
।
सुख का स्वभाव तो
इन्द्रियों द्वारा भोगने
भोग सामग्री से प्राप्त होने वाला सुख वास्तविक सुख है ही ही तारतम्य रूप भेद है । आकुलतामय होने से वह दुःख ही है निराकुलता है और इन्द्रियसुख में निराकुलता पाई नहीं जाती है । जो में आता है वह विषय सुख है, वह वस्तुतः दुःख का ही एक भेद है । उसका तो मात्र नाम ही सुख | श्रतीन्द्रिय ग्रानन्द इन्द्रियातीत होने से उसे इन्द्रियों द्वारा नहीं भोगा जा सकता है । जैसे ग्रात्मा अतीन्द्रिय होने से इन्द्रियों द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है, उसी प्रकार प्रतीन्द्रिय सुख श्रात्मामय होने से इन्द्रियों द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है । सुख श्रात्मा का गुण :
जो वस्तु जहां होती है, उसे वहां ही पाया जा सकता है । जो वस्तु जहां हो ही नहीं, जिसकी सत्ता की जहां सम्भावना ही न हो, उसे वहां कैसे पाया जा सकता है ? जैसे 'ज्ञान' आत्मा का एक गुण है, अतः ज्ञान की प्राप्ति चेतनात्मा में संभव है, जड़ में नहीं, उसी प्रकार 'सुख' भी प्रात्मा का एक गुरण है, जड़ का नहीं । अतः सुख की प्राप्ति श्रात्मा में ही होगी, शरीरादि जड़ पदार्थों में नहीं । जिस प्रकार यह ग्रात्मा स्वयं अज्ञान ( मिथ्या ज्ञान ) रूप परिरणमित हो रही है, उसी प्रकार यह जीव प्राशा से पर पदार्थों की ओर ही प्रयत्नशील है व यही इसके दुःख का इसकी सुख की खोज की दिशा ही गलत है, अतः सच्चा सुख पाने के लिये परोन्मुखी दृष्टि छोड़कर स्वयं को जानना होगा, क्योंकि अपना सुख
को जान कर
स्वयं सुख की मूल कारण है । दशा भी गलत ( दुःख रूप ) होगी ही । स्वयं को ( आत्मा को ) देखना होगा, अपनी आत्मा में है । ग्रात्मा अनंत आनन्द का