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. मनोवैज्ञानिक संदर्भ
प्रकार पूर्व बंधे हुए कर्म के अनुकूल निमित्त मिलने से वह पुष्ट होता है जिससे उसकी स्थिति . व रस देने की शक्ति बढ़ जाती है। इसे उद्वर्तना करण कहते हैं। अशुभ कमों को उद्वर्तन करण वुरा है और शुभ कर्मों का हितकर है। शुभ कर्मों की उद्वर्तना के उपाय हैं संत्सग में रहना, स्वाध्याय करना आदि और अशुभ कर्मो की उद्वर्तना के कारण हैं-कुत्सित, अश्लील साहित्य पढ़ना, दुर्जनों की संगति करना आदि। . : . . . . .: .....
(५) अपवर्तना करण-जिस प्रकार खेत में वोये हुए वीज में प्रतिकूल खाद व वातावरण के कारण वह क्षीण होता है। जिससे उसकी आयु घट जाती है और फल कम रस वाले आते हैं इसी प्रकार पूर्व में बंधे हुए कर्मों के प्रतिकूल प्रवृत्ति व . भावना करने से वे क्षीण हो जाते हैं जिससे उनकी स्थिति व रस देने की शक्ति घट जाती है। इसे अपवर्तना . . करण कहते हैं । अशुभ कर्मों का अपवर्तना करण हितकर है। .
(६) संक्रमण करण-जिस प्रकार वनस्पति विशेपज्ञ निम्न श्रेणी के बीज को .. उसी जाति के उच्च श्रेणी में परिवर्तित कर देते हैं। खट्टे फल देने वाले वीजों या वृक्षों को मीठे फल देने वाले वीजों या वृक्षों में बदल देते हैं। यह क्रिया संक्रमण क्रिया कही जाती... है और ऐसे वीजों को जन साधारण की भापा में संकर वीज कहते हैं जैसे संकर मका, : संकर गेहूं, संकर वाजरा। इसी प्रकार पूर्व में बंधी कर्म प्रकृतियों का जिस कारण से उसी. जाति की दूसरी प्रकृतियों में परिवर्तन हो जाता है, उसे संक्रमण करण कहा है। वर्तमान मनोविज्ञान में इसे मार्गान्तरी करण क्रिया कहा है। यह मांगन्तिरी करण या रूपान्तरण दो प्रकार का है :
(१) अशुभ का शुभ में और (२) शुभ का अशुभ में । शुभ प्रकृति का अशुभ प्रकृति में रूपान्तरण अहित कर है और अशुभ प्रकृति का शुभं प्रकृति में अर्थात् कुत्सित भावना का उदात्त भावना में रूपान्तरण हितकर है। इसे आधुनिक मनोविज्ञान ने उदात्तीकरण कहा है व इस पर विशेष प्रकाश डाला है । राग या कुत्सित काम भावना का संक्रमण : या उदात्तीकरण अनुराग या भक्ति भावना से, मन को श्रेष्ठ कलाकृतियों, चित्रों या महाकाव्य के निर्माण में लगा देने से किया जा सकता है। वर्तमान में उदात्ती करण प्रक्रिया का प्रयोग उदंड, अनुशासनहीन, तोड़-फोड़ करने वाले तथा अपराधी छात्रों व व्यक्तियों को . आज्ञाकारी, अनुशासन प्रिय, रचनात्मक कार्य करने वाले एवं सभ्य नागरिक बनाने के लिए किया जाता है ।
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... .. . . ...... कुत्सित प्रकृति को सत्प्रकृति या सद्प्रवृत्ति में संक्रमण करने का उपाय है-पहले . व्यक्ति के हृदय में विद्यमान इन्द्रिय-मन के क्षणिक सुखभोग की कामना-वासना को स्थायी अतीन्द्रिय सुख प्राप्ति की भावना में वदला जाय. अर्थात् स्थायी सुख के लिए: क्षणिक सुखों. . . . के त्याग की प्रेरणा दी. जाय। इससे इंन्द्रिय व मन के संयम की योग्यता पैदा होती है। फिर दूसरों के सुख के लिए अपने सुख का त्याग की भावना जागती है जो दया; दान, परोपकार, सेवा में प्रकट होती है और इनसे शान्ति व अलौकिक आनंद का अनुभव होता । है; फिर वह उसका स्वभाव बन जाता है। अशुभ कर्म प्रकृतियों को शुभ कर्म प्रकृतियों में