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भगवान् महावीर की वे वातें जो आज भी उपयोगी हैं।
जीव तुच्छ ग्रन्थियों से ग्रस्त :
भगवान् महावीर ने समस्त जीवों के त्रैकालिक अन्तरंग परिणामों को स्पष्ट रूप से देखा । भगवान् के तत्व दर्शन के अनुसार, जीव मात्र अनादि काल से असंस्कृत है । ' अतः अपने आप में परमात्म स्वरूप की सत्ता लिए हुए भी तुच्छ ग्रन्थियों से ग्रस्त है । ग्रात्मगत संस्कार विहीनता के कारण जीव बन्धन में पड़ा हुआ है । भगवान् ने जीव की इन भाव-ग्रन्थियों का विभिन्न रूप में विभिन्न शैलियों में निरूपण किया है । ग्राचार्यो ने भगवान् के ग्राशयानुसार ग्रन्थियों के चौदह प्रकारों का संकलन किया है । वे इस प्रकार हैं—
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( १ ) मिथ्यातत्व ( = मिथ्या श्रद्धा, अनास्था), (२) क्रोध ( = उत्तप्त भावावेग), (३) मान ( = घमण्ड, तनाव से युक्त भावावेग), (४) माया ( = छल-कपट, दुराव - छिपाव, वक्रता ), (५) लोभ ( = लालच, लालसा, वस्तुत्रों से चिपटने की भाव विकृति ), (६) हास ( = हंसी मज़ाक, कौतुकवृत्ति यादि), (७) रति (= वैकारिक भावों या कार्यों आदि में रुचि), (८) ग्ररति ( = ऊव, उकताहट, संयम में अरुचि ), ( ९ ) भय, (१०) शोक ( चिन्ता ), (११) जुगुप्सा ( = घृणा, सूग), (१२) स्त्रीवेद (= पुरुप से रमण की इच्छा ), (११) पुरुषवेद ( = स्त्री से रमण की इच्छा ) और (१४) नपुंसकवेद ( = स्त्री-पुरुष दोनों से रमण की इच्छा ) 13
इन ग्राभ्यन्तर ग्रन्थियों में आजकल की समस्त ग्रान्तरिक उलझनों का प्रायः समावेश हो जाता है । इन ग्रन्थियों के वाह्य निमित्त के रूप में क्षेत्र (= खुली जमीन), वास्तु ( ( = मकान प्रादि शिल्प से ढंकी हुई भूमि), हिरण्य, स्वर्ण, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद यादि परिग्रह हैं अर्थात् इनकी आत्मिक पकड़ से― चाह से भीतरी उलझनों की वृद्धि होती है । इन आभ्यन्तर ग्रन्थियों को ग्राभ्यन्तर ग्रन्थ या परिग्रह और इनके बाह्य निमित्त क्षेत्रादि को बाह्य ग्रन्थ या परिग्रह भी कहा गया है ।
इन समस्त उलझनों के मूल कारण ( = क्षेत्रादि के समग्र रूप से आत्मा के पकड़ रूप भाव ) दो प्रकार के (१) राग बंधन (= पदार्थों में रुचि रूप ग्रात्मिक उलझनं ) और (२) द्वेष बन्धन ( = पदार्थो में ग्ररुचि रूप ग्रात्मिक उलझन ) । ४ इन कारणों की विशेष स्थितियों और स्तर की अपेक्षा से इनका बन्ध के पांच हेतु ( = ग्रास्रव) के रूप में उल्लेख हुआ है । यथा— - ( १ ) मिथ्यात्व ( = सत्तत्वों में अनास्था, प्रतीति, अरुचि और ग्रसत्तत्वों में ग्रास्था, प्रतीति और रुचि), (२) ग्रविरति ( = आत्ममलिनता के हेतुत्रों से विरत नहीं होना - लगाव नहीं खींचना और उन्हीं में संलग्न रहना तथा
१. प्रसंखयं जीवियं - उत्तर० ४ १.
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अज्झज्झहेउ निययस्स बंधो — उत्तर० १४।१६.
मिच्छतं वैयतिगं हासाइछक्कगं च नायव्वं । कौहाईरणं चक्कं चउदस अभिंतरोगंठो ॥ आवस्य, पडिक्कमरणदण्डग |
- रत्नसंचय, गा० ३४९ ॥
- उत्तर० ३२।७ ।