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मनोवैज्ञानिक संदर्भ
ही है । स्वयं भगवान् महावीर ने ही मुमुक्षुत्रों को यह अधिकार दिया है, कि वे विविध दृष्टियों से स्वयं तत्व-निर्णय करें । अतः जिज्ञासा जब हो चुकी है तो उसका समाधान होना ही चाहिए। मैं दावा तो नहीं कर सकता हूं, कि तुम्हारी जिज्ञासा का पूर्णतः समाधान कर दूंगा, पर भगवान् महावीर के उपदेश प्रतीत काल में जितने उपयोगी रहे हैं उतने सम्प्रति भी उपयोगी हैं और भविष्य में भी उपयोगी रहेंगे — इस आशय से तुम्हारे चिन्तन को कुछ दिशा-बोध कराने के लिए, कुछ प्रयत्न कर रहा हूं ।
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वर्तमान युग की स्थिति :
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आज के युग की कैसी स्थिति है ? – यह हमसे छिपी नहीं है । हम इसी युग में सांस ले रहे हैं । फिर इस युग के स्पन्दन हमें क्यों न विदित होंगे ? आज किसी भी क्षेत्र में (धार्मिक, सामाजिक, शासकीय, पारस्परिक व्यवहार आदि क्षेत्र में ) सच्चारित्र की आस्था मर रही है । व्यक्ति के कुण्ठाग्रस्त होने का शोर है । सम्बन्धों की स्नेहिलता और निर्मलता समाप्त हो रही है । सैक्स के विषय में आधुनिक दृष्टिकोण ने नैतिकता, सामाजिकता, धार्मिकता श्रादि की धज्जियां उड़ाकर, समस्त मानवीय सम्वन्धों को धुन्वला कर दिया है । जो हीन है, तुच्छ है, निम्न स्तरीय भाव है — उसमें यथार्थ की प्रतीति के कारण मानव आदर्श की उच्चता खो बैठा है । यान्त्रिकता और भौतिकता - प्रधान संस्कृति ने युगमानस में शतशः ग्रन्थियों को उत्पन्न कर दिया है । आजकी रुचियां भी कितनी विचित्र हैं ? भोग-भावना ने रुचियों को कितना मलिन वना दिया है ? मानव हृदय ग्रहंकार-युक्त महत्वाकांक्षा का सिंहासन वना हुआ है । सुख के विपुल साधन जुड़ रहे हैं, फिर भी दुःख पीछा नहीं छोड़ रहा है । वैज्ञानिक अन्वेषणों की निरन्तर प्रगति होते हुए भी ग्राजका युगवोध कितने संकुचित क्षेत्र में चक्कर काट रहा है ? विशाल जनसमूह में रहते हुए भी मानव अकेलेपन के ग्रहसास से संत्रस्त है ! - भीतरी टूटन, घुटन और ऊब से कितना पीड़ित है— ग्राज का मानव ? वस्तुतः अनास्था, असन्तोष और प्रशान्ति ही आज के युग में व्याप्त है ।
यह युग चित्रण प्रायः श्राज के मनीषियों के शब्दों में ही किया गया है । परन्तु मेरी समझ में कर्मयुग में जब-जब सभ्यता भोग-प्रधान हो उठती है और संस्कृति वहिर्मुखमात्र जड़ता और वैपयिकता को प्रश्रय देने वाली — हो उठती है, तब-तब ये समस्याये विशेष रूप से उभरती आई हैं अथवा कर्मयुग की कुछ ऐसी ही विशेषता है, कि थोड़े बहुत अन्तर से, उसमें प्रत्येक काल में श्रात्मगत दबी हुई विकृतियां मुखर होकर, इस प्रकार की समस्याओं को जन्म देती ग्राई हैं—भले ही उनका बाहरी जामा भिन्न हो । मुझे लगता है, कि- कर्मयुग की हृदय को झकझोर देने वाली इस विशेषता के कारण ही, कर्मयुग के प्रवर्तक युगादिदेव भगवान् ऋषभदेव ने, कर्मयुग के प्रारम्भ काल में ही, उन ग्रान्तरिक समस्याओं का हल करने वाले उपाय के रूप में, धर्म का उपदेश दिया होगा । ग्रर्थात् कर्मयुग के साथ यह विडंबना जुड़ी हुई है । अतः साधना पथ के पथिकों के लिए ये समस्याएं नई नहीं है । क्योंकि ग्रात्मसाधक अनास्था आदि अन्तर-ग्रन्थियों को भेदकर ही साधनामार्ग में आगे बढ़ सकता है ।
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