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वैज्ञानिक संदर्भ
वैज्ञानिक सापेक्षतावाद तथा स्याद्वाद :
ज्ञान के इस व्यापक परिवेश में एक अन्य बात यह भी स्पष्ट होती है कि विज्ञान और जैन-दर्शन का सम्बन्ध 'सापेक्षवाद' की प्राधार भूमि पर माना जा सकता है जो वैज्ञानिक-दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण 'प्रत्यय' है जो जैन-दर्शन के स्याद्वाद से मिलता जुलता है। यह समानता इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि जैन मनीपा ने विश्व के यथार्थ स्वरूप के प्रति एक ऐसी अन्तदृष्टि प्राप्त की थी जो तत्व-चिंतन का क्षेत्र होते हुए भी 'यथार्थ' के प्रति एक स्वस्थ आग्रह था। विश्व और प्रकृति का रहस्य 'सम्बन्धों' पर प्राधारित है जिसे हम निरपेक्ष (Absolute) प्रत्ययों के द्वारा कदाचित् हृदयंगम करने में असमर्थ रहेंगे। द्रव्य या पुद्गल की समस्त अवधारणा इसी सापेक्ष तत्व पर आधारित है और वर्तमान भौतिकी, रसायन तथा गणितीय प्रत्ययों के द्वारा 'द्रव्य' (Matter) का जो भी रूप समक्ष पाया है, वह कई अर्थो मे वैज्ञानिक अनुसंधानों से प्राप्त निष्कर्षों से समानता रखता है। विकासवादी सिद्धांत और जीव-अजीव को धारणाएं :
आधुनिक विज्ञान का एक प्रमुख सिद्धांत विकासवाद है जिससे हम विश्व स्वरूप के प्रति एक अन्तदृष्टि प्राप्त करते है। डाविन श्रादि विकासवादियों ने जैव (Organic) और अजैव (Inorganic) के सापेक्ष संबंध को मानते हुए उन्हें एक क्रमागत रूप में स्वीकार किया है। इसका अर्थ यह हुआ कि जैव (चेतन) और अजैव (जड़) के मध्य शून्य नहीं है, पर दोनो के बीच एक ऐसा सम्बन्ध है जो दोनों के 'सत्' स्वरूप के प्रति समान महत्त्व का भाव प्रकट करता है। जैन-दर्शन की द्रव्य अवधारणा में इस वैज्ञानिक तथ्य का संकेत 'जीव' और 'जीव' की परिकल्पनात्रों के द्वारा व्यक्त हुअा है जो क्रमश: चेतन और अचेतन के पर्याय है और दोनों यथार्थ और सत् हैं । यहा पर यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि वेदांत अथवा चार्वाक दर्शन के समान यहां पर द्रव्य (Matter) चेतन या जड़ नहीं है, पर द्रव्य (पुद्गल) की धारणा मे इन दोनों तत्त्वों का समान समावेश है। इस सारे विवेचन से एक अन्य तथ्य यह भी प्रकट होता है कि सत्, द्रव्य, पदार्थ और पुद्गल-सब समानार्थक अर्थ देने वाले शब्द हैं और इसी से, जैन प्राचार्यों ने "द्रव्य ही सत् है और सत् ही द्रव्य है" जैसी तार्किक प्रस्थापना को स्थापित किया। उमास्वाति नामक जैन आचार्य ने तो यहां तक माना कि 'काल भी द्रव्य का रूप है"१ जो वरवस आधुनिक करण-भौतिकी (Particle Physics) को इस महत्त्वपूर्ण प्रस्थापना की ओर ध्यान आकर्षित करती है कि काल तथा दिक भी पदार्थ के रूपांतरण है और यह रूपांतरण पदार्थ के तात्विक रूप की ओर भी संकेत करते हैं पदार्थ या द्रव्य का यह रूप आदर्शवादी न होकर यथार्थवादी अधिक है क्योकि जैन-दर्शन भेद को उतना ही महत्त्व देता है जितना अद्वतवादी अभेद को। पाश्चात्य दार्शनिक ब्रडले ने भी 'भेद' को एक प्रावश्यक तत्व माना है जिससे हम सत् के सही रूप का परिजान कर सकते हैं। १. जैन-दर्शन, डॉ. मोहनलाल मेहता, पृ० १२८-उमास्वाति के ग्रंथ तत्वार्थभाष्य से उद्धृत। २. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, डॉ० हीरालाल जैन, पृ० १८ ।