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जैन दर्शन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण
इतना ही नहीं, ऐसा मानने से न केवल समाज के एक वहुसंख्यक भाग का अपमान होता है । प्रत्युत यह सद्गुण और सदाचार का भी घोर अपमान है । इस व्यवस्था को अंगीकार करने से दुराचार, सदाचार से ऊंचा उठ जाता है, अज्ञान, ज्ञान पर विजयी होता है श्रीर तमोगुण सतोगुण के सामने ग्रादरास्पद वन जाता है । यही ऐसी स्थिति है जो गुणग्राहक विवेकजनों को सह्य नहीं हो सकती । ” ( निर्ग्रन्थ प्रवचन भाष्य, पृष्ठ २८६ )
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अतएव जैन धर्म की मान्यता है कि गुरणों के कारण कोई व्यक्ति ग्रादरणीय होना चाहिए और अवगुणों के कारण अनादरणीय एवं अप्रतिष्ठित होना चाहिए | इस मान्यता के पोपक जैनागमों के कुछ वाक्य ध्यान देने योग्य हैं
मस्तक मुड़ा लेने से ही कोई श्रमरण नहीं हो जाता, प्रोंकार का जाप करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं बन सकता, अरण्यवास करने ही कोई मुनि नहीं होता और कुश -
चीर के परिधानमात्र से कोई तपस्वी का पद नहीं पा सकता ।
( उत्तराध्ययन श्र० २५, सूत्रकृतांग १ श्रु०, ग्र० १३, गा० ६, १०, ११ ) समभाव के कारण भ्रमण ब्रह्मचर्य का करने के कारण मुनि, और तपश्चर्या में निरत रहने कर्म (आजीविका ) से ब्राह्मरण होता है, होता है, और कर्म से शूद्र होता है ।
मनुष्य - मनुष्य में जाति के आधार पर कोई पार्थक्य दृष्टिगोचर नहीं होता मगर तपस्या ( सदाचार ) के कारण अवश्य ही अन्तर दिखाई देता है ( उत्तराध्ययन )
पालन करने से ब्राह्मण, ज्ञान की उपासना वाला तापस कहा जा सकता है ।
कर्म से
क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य
इन उद्धरणों से स्पष्ट होगा कि जैन धर्म ने जन्मगत वर्णव्यवस्था एवं जाति-पाति की क्षुद्र भावनाओं को प्रश्रय न देकर गुणों को ही महत्व प्रदान किया है । इसी कारण जैन संघ ने मनुष्य मात्र का वर्ण एवं जाति का विचार न करते हुए समान भाव से स्वागत किया है । वह आत्मा और परमात्मा के बीच में भी कोई अलंघ्य दीवार स्वीकार नही करता तो आत्मा - श्रात्मा और मनुष्य-मनुष्य के बीच कैसे स्वीकार कर सकता है ?
अपरिग्रह भाव की व्यावहारिकता :
संसार का कोई भी धर्म परिग्रह को स्वर्ग या मोक्ष का कारण नहीं मानता है, किन्तु सब धर्म एक स्वर से इसे हेय घोषित करते हैं । ईसाई धर्म की प्रसिद्ध पुस्तक वाइविल का यह उल्लेख प्रायः सभी जानते हैं कि- " सूई की नोंक में से ऊंट कदाचित निकल जाय, परन्तु धनवान् स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सकता ।" परिग्रह की यह कड़ी से कड़ी आलोचना है । इधर भारतीय धर्म भी परिग्रह को समस्त पापों का मूल और ग्रात्मिक पतन का कारण कहते हैं, किन्तु जैन धर्म में अपरिग्रह को व्यवहार्थं रूप प्रदान करने की एक बहुत सुन्दर प्रणाली निर्दिष्ट की गई है ।
जैन संघ मुख्यतया दो भागों में विभक्त है त्यागी और गृहस्थ । त्यागी वर्ग के लिए पूर्ण अपरिग्रही, अकिंचन रहने का विधान है । जैन त्यागी संयम - साधना के लिए