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जैन दर्शन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण
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ज्ञान के साथ यदि उदण्डता, संकीर्णता, पक्षपात एवं असहिष्णुता उत्पन्न हो जाती है तो वह अधःपतन का कारण बन जाता है। मानवीय दौर्बल्य से उत्पन्न यह अवांछनीय वृत्तियां अमृत को भी विप बना देती हैं ।
जैन धर्म ने उस कला का आविष्कार किया है, जो ज्ञान को विपाक्त बनने से रोकती है। वह कला ज्ञान को सत्य, शिव, और सुन्दर बनाती है. उस कला को जनदर्शन ने अनेकान्त दृष्टि का नाम दिया है, जिसका निरूपण पहले किया जा चुका है। यह दृष्टि परस्पर विरोधी वादों का प्राधार समन्वय करने वाली, परिपूर्ण सत्य की प्रतिष्ठा करने वाली और बुद्धि में उदारता, नम्रता, सहिष्णुता और सात्विकता उत्पन्न करने वाली है। दार्शनिक जगत् के लिए यह महान् वरदान है । अहिंसक दृष्टि का विकास :
___ मानव जाति को मांस भक्षण की अवांछनीयता एवं अनिष्टकरता समझा कर मांसाहार से विमुख करने का सूत्रपात जैन धर्म ने ही किया है । समस्त धर्मो का आधारभूत
और प्रमुख सिद्धांत अहिंसा ही है । यह मन्तव्य बनाने का अवकाश जैन धर्म ने ही दिया है । जैन धर्म ने अहिंसा को इतनी दृढ़ता और सबलता के साथ अपनाया, और जैनाचार्यो ने अहिंसा का स्वरूप इतनी प्रखरता के साथ निरूपण किया, कि धीरे-धीरे वह सभी धर्मो का अंग बन गई । जैन धर्मोपदेशकों को यदि सबसे बड़ी एक सफलता मानी जाय, तो वह अहिंसा की साधना ही है । उनकी वदौलत ही ग्राज अहिंसा विश्वमान्य सिद्धान्त है । देशकाल के अनुसार उसकी विभिन्न शाखाएं प्रस्फुटित हो रही हैं । जैन धर्म की, अहिंसा के रूप में एक महान् देन है, जिसे विश्व के मनीपो कभी भल नहीं सकते ।
___ यों तो भगवान् ऋपभदेव के युग से ही अहिंसा तत्त्व, प्रकाश में आ चुका था, मगर जान पड़ता है कि मध्यकाल में पुनः हिंसा-वृत्ति उत्तेजित हो उठी तब बाईसवें तीर्थकर भगवान् अरिष्टनेमि ने अहिंसा की प्रतिष्ठा के लिए जोरदार प्रयास किया। उन्होंने विवाह के लिए श्वसुरगृह के द्वार तक पहुँच कर भी पशु-पक्षियों की हिंसा के विरोध में विवाह करना अस्वीकार करके तत्कालीन क्षत्रिय-वर्ग में भारी सनसनी पैदा कर दी। अरिष्टनेमि का वह साहसपूर्ण उत्सर्ग, सार्थक हुया और समाज में पशुओं और पक्षियों के प्रति व्यापक सहानुभूति जागी । उनके पश्चात् तीर्थकर पार्श्वनाथ ने सर्प जैसे विषैले प्राणियों पर अपनी करुणा की वर्षा करके, लोगों का ध्यान दया की ओर आकर्षित किया । फिर भी धर्म के नाम पर जो हिंसा प्रचलित थी, उसे निश्शेष करने के लिए चरम तीथंकर भगवान् महावीर ने प्रभावशाली उपदेश दिया । यद्यपि हिंसा प्रचलित है फिर मी विचारवान लोग उसे धर्म या पुण्य का कार्य नहीं समझते, बल्कि पाप मानते हैं । इस दृष्टिपरिवर्तन के लिए जैन-परम्परा को बहुत उद्योग करना पड़ा।
अवतारवाद बनाम परमात्मवाद :
. प्रात्मा की चरम और विशुद्ध स्थिति क्या है ? यह दर्शनशास्त्र के चिंतन का एक