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जैन दर्शन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण
मुनि श्री सुशीलकुमार
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सत्य की उपलब्धि :
तत्त्व का ज्ञान तपस्या एवं साधना पर निर्भर है । सत्य की उपलब्धि इतनी सरल नहीं है कि अनायास ही वह हाथ लग जाय । जो निष्ठावान् साधक जितनी अधिक तपस्या और साधना करता है, उसे उतने ही गुह्य तत्त्व की उपलब्धि होती है ।
पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों की बात छोड़दें और चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर के ही जोवन पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट विदित होगा कि उनको तपस्या और साधना अनुपम और असाधारण थी । भ० महावीर साढ़े बारह वर्षों तक निरन्तर कठोर तपश्चर्या करते रहे । उस असाधारण तपश्चर्या का फल भी उन्हें असाधारण ही मिला । वे तत्त्ववोध की उस चरम सीमा का स्पर्श करने में सफल हो सके, जिसे साधारण साधक प्राप्त नहीं कर पाते । वास्तव में जैनधर्म के सिद्धान्तों में पाई जाने वाली खूबियां ही उनका रहस्य है । जंन मान्यताएं यदि वास्तविकता की सुदृढ़ नींव पर अवस्थित विज्ञानसम्मत हैं तो उनका रहस्य भगवान् महावीर का तपोजन्य परिपूर्ण तत्त्वज्ञान ही है ।
सृष्टि रचना की प्रक्रिया :
उदाहरण के लिए सृष्टि रचना के हो प्रश्न को ले लीजिये, जो दार्शनिक जगत् में अत्यन्त महत्त्वपूर्णं श्राधारभूत है । विश्व में कोई दर्शन या मत न होगा, जिसमें इस गम्भीर प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास न किया गया हो । क्या प्राचीन, और क्या नवीन, सभी दर्शन इस प्रश्न पर अपना दृष्टिकोण प्रकट करते हैं । मगर वैज्ञानिक विकास के इस युग में उनमें अधिकांश उत्तर कल्पनामात्र प्रतीत होते हैं । इस सम्बन्ध में महात्मा बुद्ध विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने बिना किसी संकोच या झिझक के स्पष्ट कह दिया कि लोक का प्रश्न अव्याकृत है- अनिरिंगत है । इसका आशय यही लिया जा सकता है कि लोकव्यवस्था के सम्बन्ध में निर्णयात्मक रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता ।
इस स्पष्टोक्ति के लिए गौतम वुद्ध धन्यवाद के पात्र हैं, मगर लोक के विषय में हमारे अन्तःकरण मे जिज्ञासा सहज रूप से उदित होती है, उसकी तृप्ति इस उत्तर से नहीं
हो पाती । और जब हम जिज्ञासा तृप्ति के लिए की ओर ध्यान देते हैं, तव निराशा का सामना
इस विषय के विभिन्न दर्शनों के उत्तर करना पड़ता है ।
सृष्टि रचना के विषय में अनेक प्रश्न
हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं । प्रथम यह