________________
अध्यात्म विज्ञान से ही मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा संभव
१८३
इसी कारण हम दुःखी हैं। हमारी यात्मिक शक्तियां कम होती जा रही हैं तथा मस्तिष्क की उपलब्धियों का अनुपात भयोत्पादक सीमा तक पहुंच गया है । हम पृथ्वी और आकाश को अपने अधिकार में मानते-से हैं, परमाणु और नक्षत्रों के रहस्य को समझने का दावा करते हैं, किन्तु आशंकाओं से घिरे हुए हैं । हम उच्चतम शैल-शिखरों या पृथ्वी के अंतिम छोरों पर झंडा गाड़ने के लिये तो परिश्रम करते हैं और कष्ट सहने के लिए तैयार हैं, किन्तु उन विचारों के लिये नहीं, जिन्हें कि हम स्वयं अनुसरणीय मानते हैं । हममें से अधिकांश लोग याध्यात्मिक ज्ञान को ऐसी आसानी से संभाल लेना चाहते हैं, जैसे हम समुद्र के किनारे पड़ी सीपी को उठा लेते हैं, पुस्तकों की दुकान से पुस्तकें लेते हैं या औषधि-विक्रेता से औषधि ले लेते हैं । वैसे ही हम यह आशा या आकांक्षा रखते हैं कि कुछ समय या धन देकर आध्यात्मिक ज्ञान की उपलब्धि कर ली जायगी, क्योंकि हममें अध्यवसायपूर्वक खोज करने की शक्ति या धैर्य नहीं है। निश्चय ही कुछ ऐसा प्रतीत होता है, जो हमसे छूट गया है या जिससे हम दूर, अति दूर चले जा रहे हैं । यदि हम अपनी आत्मा को गंवा कर सारे संसार को भी प्राप्त करलें तो उसका कोई लाभ या मूल्य नहीं है ।
आश्चर्यजनक तकनीकी उपलब्धियों और भौतिक विज्ञान के आविष्कारों के कारण अनेक लोगों का दृष्टिकोण हो गया है कि भौतिक ही सत्य है, प्रयोगसिद्ध स्थापनायें ही सत्य हैं । प्रयोगों द्वारा सिद्ध न की जा सकने वाली स्थापनायें सही नहीं हैं । नीतिशास्त्र और आध्यात्मविद्या की स्थापनारों का कोई अर्थ नहीं है । आध्यात्म या तो मानव के अहंकार का व्यर्थ प्रयास है, जो समझ से परे के विषयों की छानबीन करता है, या लोकप्रचलित अन्धविश्वासों की छाया है कि जिसने उचित रीति से अपनी रक्षा न कर पाने पर अपनी कमजोरी को ढंकने और सुरक्षित रहने के लिये कंटीली झाड़ियां लगा दी हैं । यह यथार्थ विज्ञान नहीं है। इसी प्रकार दुर्भाग्यवश विज्ञान और तकनीकी उपलब्धियों से आकृष्ट हमारे 'युग के कुछ नेता भी मानव को एक विशुद्ध यांत्रिक, भौतिक और स्वयंचलित इच्छाओं से निर्मित प्राणी समझते है । वे मानव की मौलिक प्रवृत्तियों पर तो जोर देते हैं, किन्तुं उसके अन्तस् में उपस्थित उच्चतर पवित्रता को भूले-से लगते हैं । हमारे युग का रोग हैअास्थाहीनता । इसी कारण हम आध्यात्मिक रूप से विस्थापित हैं और हमारी सांस्कृतिक जड़ें उखड़ चुकी हैं। अपने पाप में जीना सीखें :
अपने भौतिक वातावरण को काबू में रखने की हमारी असीमित क्षमता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. 'स्व' को जानना और स्वयं के साथ सम्बद्ध रहना । विवेक की उपस्थिति हमारी मानवता की गारण्टी नहीं है । मानव बनने के लिये हमें विवेक के साथ किसी
और वस्तु की भी आवश्यकता है । संभाव्य विनाश को दूर करने के लिये आवश्यक है कि हम अपने आप में जीना सीखें। इसके लिये निश्चय ही आध्यात्मिकता की खोज करना होगा, मानवीय व्यक्तित्व का समादर करना होगा। अभिमान और घृणा से मानव स्वभाव चाहे जितना कलुपित हो चुका हो किन्तु उसके भीतर विराजित देवत्व को समाप्त नहीं किया जा सकता है । इस निष्ठा के द्वारा हम अन्धकार से प्रकाश में पहुंचते हैं । जब आत्मा