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दार्गनिक संदर्भ
शक्ति जिज्ञासा का पोपण किया गया है। इधर विज्ञान की उपलब्धियों के मूल में यही भावना कार्य करती रही है । सत्य की खोज के पीछे शंका की प्रेरक शक्ति सदा वर्तमान रहती है । अाधुनिक अनुसंधानों के पीछे इसका महत्त्व स्वयं सिद्ध है । ठीक इसी का पूरक दूसरा पक्ष अनेकांतवाद में देखा जा सकता है। इवर वौद्धिकों के भीतर किसी एक अनुशासन की सीमाओं में कार्यरत रहने की प्रवृत्ति दूर हो रही है। वै यह अनुभव करने लग गये हैं कि जव एक अनुशासन के भीतर की उपलब्धि बहुत दूर तक अन्य अनुशासकों की धारणाओं को आमूल परिवर्तित करने में सक्षम है, तब विविध अनुशासनों से होकर गुजरने वाला रास्ता अनन्त सम्भावनाओं के द्वार खोल देता है। क्या 'अनेकांतवाद' के रूप में याधुनिक मस्तिष्क की इस उपलब्धि की गूंज नहीं सुनाई पड़ती ? कहने की आवश्यकता नहीं है कि ऐसी वहत सी आधुनिक अवधारणाओं का समानान्तर स्वरूप जैन-धर्म दर्शन में खोजा जा सकता है। आधुनिक मस्तिष्क के लिए यह कम विस्मय की बात नहीं है कि हजारों वर्ष पहले भारतीय मनीपा की वौद्धिक सूझ कंसी विस्तृत उड़ान भर सकती थी। मनुष्यता दिग्भ्रमित :
__ धर्मों के प्रति आधुनिक समाज की रुचि व आकर्पण उस रूप में नहीं है जैसे कि प्राचीन काल या मध्ययुग में रहे हैं। इस परिवर्तन का मुख्य कारण यह है कि आज परिवर्तित परिस्थितियों में आधुनिक मनुप्य के लिये धर्म की अनिवार्यता समाप्त हो चली है । वह विशुद्ध लौकिक दृष्टि, धर्म-निरपेक्षता का भाव रखता हुआ अपनी जीवनयात्रा चला रहा है । समाज-कल्याण की भावना का प्रवेश जब अधार्मिक संस्थाओं में हो गया है, तव धर्म का महत्त्व व गौरव कम होना स्वाभाविक ही है । परन्तु धर्म का स्थान लेने वाली व्यवस्था की सम्भावनायें अभी बहुत दूर हैं। आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि से जनसामान्य को वह संवल और आधार प्राप्त नहीं हो सकता जो कि धर्म के कारण उसे सहज प्राप्त था। ऐसे समय में जबकि पुराने आधार खिसक रहे हों और नवीन आधार जड़ जमा पाने में असफल हों, मनुप्यता भटका करती है। मूल्य विमूढ़ता की शिकार वनकर वह अधर में लटकती रहती है । भारत के प्रसंग में यह स्थिति और भी चिंताजनक कही जा सकती है । यहां एक और धर्म-निरपेक्षता की घोपित नीतियों के साथ आधुनिक निर्माणकार्य चल रहे हैं, तथा दूसरी और अन्धविश्वासों की सीमा तक धर्म में गले-गले तक डूबी हुई पिछलग्गू जनता है। मुट्ठी भर आधुनिकों के हाथों विशाल जन-समुदाय हांका जा रहा है। महावीर-वाणी : सही दिशा-बोध :
प्रश्न उठता है कि ऐसी आपा-धापी में, अंधी दौड़ में हम अपने देश व समाज के लिए किस धर्म को प्रासंगिक समझे । कहने की जरूरत नहीं है कि आज की परिस्थिति में भगवान महावीर की वाणी में नई चेतना जगाने की शक्ति है। हजारों वर्ष पूर्व उन्होंने अपनी अमृत वाणी से हिंसा, स्वार्थ, क्रूरता, भौतिकता में डूबे हुए समाज को स्वस्थ नैतिक वायुमण्डल प्रदान कर भीतर व बाहर की शुचिता उसे प्रदान की थी-पाज ठीक उसी की जरूरत है । भारत में चरित्र का स्खलन एक ऐसी महा दुखांत घटना है जिसकी पीड़ा