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दार्शनिक संदर्भ
बाहरी दर्शन से घटित होती हैं । स्वतन्त्रता आंतरिक गुण है । जिसका अंतःकरण प्रवेश से मुक्त हो जाता है, वह समस्या का समाधान अपने भीतर खोजता है, क्रिया का जीवन जीता है और वह सही अर्थ में स्वतन्त्र होता है । वह गाली के प्रति मौन, क्रोध के प्रति प्रेम, ग्रहं के प्रति विनम्रता और प्रहार के प्रति शांति का ग्राचरग कर सकता है । यह क्रिया सामनेवाले व्यक्ति के व्यवहार से प्रेरित नहीं होती, किंतु अपने व्येय से प्रेरित होती है, इसलिए यह क्रिया है । स्वतन्त्रता का आध्यात्मिक अर्थ है क्रिया, परतन्त्रता का अर्थ है प्रतिक्रिया । श्रहिंसा किया है, हिंसा प्रतिक्रिया, इसीलिए महावीर ने अहिंसा को धर्म और हिंसा को अधर्म बतलाया । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है स्वतन्त्रता धर्म है और परतन्त्रता धर्म ।
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स्वतन्त्रता का सामर्थ्य :
प्रांतरिक जगत में मनुष्य सीमातीत स्वतन्त्र हो सकता है, किन्तु शरीर कर्म और नमाज के प्रतिबन्ध-क्षेत्र में कोई भी मनुष्य सीमातीत स्वतन्त्र नहीं हो सकता । वहां प्रांतरिक और बाहरी प्रभाव उसकी स्वतन्त्रता को सीमित कर देते हैं । आत्मा अपने अस्तित्व में हो पूर्ण स्वतन्त्र हो सकती है। बाहरी संपर्को में उसकी स्वतन्त्रता सापेक्ष ही हो सकती है । यह संसार अपने स्वरूप में स्वयं वदलता है । इसके बाहरी ग्राकार को जीव बदलते है और मुख्यतया मनुष्य वदलता है । क्या मनुष्य इस संसार को बदलने में समर्थ है ? क्या वह इसे अच्छा बनाने में समर्थ है ? इन प्रश्नों का उत्तर दो विरोधी धाराओं में मिलता है । एक धारा परतन्त्रतावादी दार्शनिकों की है । उसके अनुसार मनुष्य कार्य करने में स्वतन्त्र नहीं है, इसलिए वह संसार को नहीं बदल सकता, उसे अच्छा नहीं बना सकता। दूसरी धारा स्वतन्त्रतावादी दार्शनिकों की है । उसके अनुसार मनुष्य कार्य करने में स्वतन्त्र है | वह मंमार को बदल सकता है, उसे अच्छा बना सकता है, कालवादी दार्शनिक मनुष्य के कार्य को काल से प्रतिबंधित, स्वभाववादी दार्शनिक उसे स्वभाव से प्रतिबन्धित, नियतिवादी दार्शनिक उसे निर्यात से निर्धारित, भाग्यवादी दार्शनिक उसे भाग्य के अधीन और पुरुषार्थवादी दार्शनिक उमे पुरुषार्थ से निष्पन्न मानते हैं ।
पुरुषार्थ की सफलता-असफलता :
महावीर ने मनुष्य के कार्य की अनेकांत दृष्टि से समीक्षा की । उन्होंने कहाद्रव्य वह होता है, जिसमें अर्थक्रिया होती है । यह स्वाभाविक क्रिया है । यह न किसी निमित्त मे होती है और न किसी निमित्त से अवरुद्ध होती है । यह किसी निमित्त से प्रतिधन नही होती, इसलिए पूर्ण स्वतन्त्र होती है । द्रव्य में वाह्य निमित्तों से ग्रस्वाभाविक किया भी होती है । वह अनेक योगों से निप्पन्न होने के कारण यौगिक होती है । यौगिक दिया में काल, स्वभाव, नियति, भाग्य और पुरुषार्थ - इन सबका योग होता है - किसी काम और किसी का अधिक । जिसमें काल, स्वभाव, नियति या भाग्य का योग अधिक होता है, उसमे मनुष्य विचार मे स्वतन्त्र होते हुए भी कार्य करने में परतन्त्र होता है । जिसमे पुरुषार्थ का योग अधिक होता है, उसमें मनुष्य काल त्रादि योगों से परतन्त्र होते हुए भी कार्य करने मे स्वतन्त्र होता है । इस प्रकार मनुष्य की कार्य करने की स्वतन्त्रत