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महावीर की दृष्टि में मानव-व्यक्तित्व के विकास की संभावनाएं
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उनकी विरति से आत्म ज्ञान या विश्व ज्ञान की है। संसार का मूल कषाय है । कषायनिवृत्ति की साधना ही संयमानुष्ठान है । संयम कल्याण का वास्तविक मार्ग है, यही शिवसंकल्प है ।' कपाय-निवृत्ति परिष्करण है, अतः व्यक्तित्व-विकास का पथ भी यही है ।
विश्व-वेदना की अनुभूति :
जो आत्मा की सत्ता को अस्वीकृत करते हैं या कोरे देहात्मावादी हैं, शरीर ही जिनकी दृष्टि में सर्वस्व है, वे भी मानसिक व्यापकता को स्वीकर करते हैं। शरीर पोषण की अपेक्षा लोक-कल्याण द्वारा यशार्जन की प्रवृत्ति जिन देहात्मवादियों में होती है, उनका व्यक्तित्व श्रेष्ठ क्यों माना जाता है ? इस शरीर संरचना का केन्द्र मस्तिष्क है और हृदय उसका पोषण-केन्द्र, तव भी व्यक्ति निष्ठ, समाज निष्ठ और विश्व निष्ठ मानव के व्यक्तित्व का स्तर-भेद तो है ही । व्यक्ति-मानस के परिष्करण एवं विकास के विना क्या उसमें यह क्षमता आ सकती है कि वह विश्व वेदना की अनुभूति कर सके ? उसकी हृदय वीणा के तार की झंकार विश्व भर के मानव-हृदय के तारों को समान स्वर में कैसे झंकृत कर सकती है ? आज तो टेलिपैथी को वैज्ञानिक सत्य मान लिया गया है । व्यक्ति व्यक्तित्व के सीमित क्षेत्र एवं धरातल से विश्व-मानव के व्यक्तित्व का व्यापक क्षेत्र एवं धरातल निश्चित ही ऊंचा है । इस व्यक्तित्व-विकास के लिए भी वैसी ही साधना
और तप की आवश्यकता पड़ती है जैसी आत्मा के निर्मल स्वरूप की उपलब्धि के लिए। साधना के स्तर और स्वरूप की दृष्टि से दोनों ही पथ समान और समानान्तर हैं। मार्ग की कठिनाइयां और बाधाएं भी समान हैं, और सिद्धियां तथा सफलताए भी समान हैं । एक पथ के पथिक का अनुभव दूसरे प्रात्म-पथ के पथिक के अनुभव से भिन्न नहीं हैं । यही कारण है कि महावीर ने न लोक की उपेक्षा की, न आत्मा की। आत्मज्ञ वह है, जो विश्वज्ञ है और विश्वज्ञ वह है, जो आत्मज्ञ है ।२ व्यक्तित्व-विकास की यह मंजिल है। यहीं पहुंच कर लोकाधिगमता और लोकातिक्रान्त गोचरता प्राप्त होती है । अमरत्व
यही है ।
अमरत्व की उपलब्धि :
साधना के इस समानान्तर पथ के किसी भी पथिक के लिए यह आवश्यक है कि वह कोई भी पथ अपनाए, मंजिल तक पहुंचे । महावीर ने वह मंजिल प्राप्त करली थी। वह निम्रन्थ बने और तब लोक-कल्याण के दूसरे समानान्तर पथ पर सरलता से चल पड़े । महावीर 'निर्गन्थ' थे, इसके अर्थ पर ध्यान दिया जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वे कर्मबन्ध की समस्त गुत्थियों से मुक्त होकर केवलज्ञान संपन्न मुक्त-पुरुप थे। निर्ग्रन्थ के वास्तविक अर्थ वोध में उपनिषद् के निम्नलिखित दो श्लोक अधिक सहायक हैं
१ आचारांग-२/१६६, ऋक्-५/५१/१५, यजु : ३४/१ । २ जे एणं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ।
आचारांग ३/४/१२३ ३ कठो० २/३/८, श्वेता० ६/१५ ।