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दार्शनिक संदर्भ
विक्षेप है, यही वीरों का मार्ग है ।" मानव विज्ञान इस बात को प्रकट करता है कि सामान्य गति अपरिष्कृत और कम जटिल अवस्थाओं से अधिक परिष्कृत और विकसित स्वरूपों की ओर प्रगति के रूप में ही रही है । २ विरति परिष्करण का मार्ग है, वैसे मानव स्वतन्त्र है कि वह चरम परिष्कृत अवस्था, मोक्ष, सिद्धि या केवली की स्थिति प्राप्त करे या न करे 13 सामान्य जीवन व्यवहार तो 'जयं चरे' आदि के अनुसार केवल विवेक सम्पन्नता की ही अपेक्षा रखता है ।
आत्मोपलब्धि : लोकोपलब्धि :
व्यक्तित्व विकास जव अन्तर्मुखी होता है तो वह आत्म-ज्योति की उपलब्धि तक पहुंचता है किन्तु जब वह वहिर्मुखी होता है तो लोकोन्मुख होने के कारण लोक-विजय तक पहुंचता है । क्या ग्रात्मोपलव्धि और लोक-विजयोपलब्धि में कोई अन्तर है ? ग्रात्मा की उपलब्धि श्रात्मज्ञान के विना असंभव है, लोकोपलब्धि लोक ज्ञान के विना । वस्तुतः आत्म-विस्तार के ये दोनों ही ऐसे समानान्तर मार्ग हैं, जिनके ग्राकार - प्रकार और दूरी के साथ मंजिल में भी कोई अन्तर नहीं है । एक का ज्ञान दूसरे पथ का भी ज्ञान करा देता है | हिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह का पालन दोनों पथों पर समान रूप से करना पड़ता है । उदाहरण के लिए हिंसा को ही ले लिया जाय । हिंसा से विरति के विना आत्मा को कर्म मुक्त या निष्कलुष कैसे बनाया जा सकता है ? सर्व सत्वेषु मैत्री या विश्व बन्धुत्व की भावना कैसे विकसित होगी ? ग्रात्म विस्तार को विश्व व्यापी बनाने के लिए हिंसा और उसके मूल कारण कपाय - क्रोध के त्याग विना कोई कैसे सफल होगा ? कषाय-त्याग को यह साधना, चाहे ग्रात्मोपलब्धि के लिए हो या विश्वोपलब्धि के लिए, व्यक्तिगत स्तर पर हो या सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर अथवा निजी स्तर पर हो या सामूहिक स्तर पर सर्वत्र समान है । हिंसा ग्रात्मा का स्वाभाविक गुण है । जीव-विवेक इसका आधार है ।" हिंसा का मूल कारण कोव है । क्रोध-विजय ही लोक-विजय है और व्यक्तित्व विकास की अन्तः और वहिर्मुखी दोनों ही साधनात्रों में इसका समान महत्त्व है । 'ग्राचारांग' में ब्रह्म का अर्थ है संयम, इसका आचरण ही ब्रह्मचर्य है । ७ संयम के अभाव में व्यक्तित्व विकास तो संभव ही नहीं है । लोभ प्रय- स्तेय, परस्पर संवद्ध है । ग्रामविस्तृति का यह सर्वाधिक बाधक तत्त्व है । यही स्थिति समस्त पंचकपायों और
आचारांग - १/३/२०
२ धर्म तुलनात्मक दृष्टि में राधाकृष्णन - पृ० १०, ११ ।
३ गीता - ६/५
४ आचारांग २/३/८१, ४/३/१३४, ३/४/१२६, स्था० ४२६, ४३०, समवायांग १७ दसर्वकालिक ६/ १२, १३, ७/३/११, ६/१४-१५, १६, २१, ३७, ३८ आदि ।
५. आचारांग १/७/६२ |
६ वही ।
७
स्थानांग - ४२६-३०, गीता २/४८, ५/१६, ६/३२ । कठो० १/१/२८, आचारांग-२/३/८२ |
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