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शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के विकास-क्रम में
महावीर के विचार
• श्री हरिश्चन्द्र दक
विषम वातावरण :
आज से २५०० वर्ष पूर्व भारत की सामाजिक स्थिति बड़ी विवित्र थी। सामाजिक विषमता, हिंसा एवं क्रूरता के उस वातावरण में मानवीय मूल्यों को तिलांजली दे दी गयी थी। धर्म के नाम पर पशुवध सामान्य वात थी। सम्पूर्ण सामाजिक ढांचा रूढ़ियों, अंध परम्पराओं एवं पाखण्डों की खोखली नींव पर खड़ा हुआ था । जातीयता की थोथी दीवारों ने मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद की भयंकर सीमाएं बना दी थीं। गली व चौराहे का हर पत्थर ईश्वर के नाम से पूजा पा रहा था । पर शूद्रों की छाया तक से परहेज किया जाता था।
ऐसे विषम विषमयी वातावरण में भगवान महावीर द्वारा "मित्ती में सव्वे भूएसू वैरं मझ न केणई" का उद्घोष पीड़ित प्रताड़ित एवं पददलित मानव के लिए सुखद पाश्चर्य था। उनके द्वारा सत्य, अहिंसा, प्रेम एवं करुणा का सन्देश अपने आप में क्रान्तिकारी विचार था । सामाजिक जीवन में सहअस्तित्व :
श्रमण भगवान महावीर नेजं इच्छसि अप्परगतो, जंचन इच्छामि अप्परगतो
तं इच्छ परस्स विमा, एत्तिमग्गं जिण सासरणयं (जिस हिंसक व्यापार को तुम अपने लिए पसन्द नहीं करते हो, उसे दूसरे भी पसन्द नहीं करते हैं । जिस दयामयी व्यवहार को तुम पसन्द करते हो उसे सब ही पसन्द करते हैं) का उपदेश देकर सामाजिक जीवन में सहअस्तित्व के सिद्धान्त को सर्वप्रथम प्रतिष्ठित किया।
एक वार के प्रवास में एक शिष्य ने भगवान् से प्रश्न पूछाप्रभो ! आपने अहिंसा को क्यों स्वीकार किया ? श्रमण भगवान् महावीर ने उत्तर दिया
"संसार में व्याप्त समस्त चराचर जीवों में समान चेतना है। सभी आत्माएँ समान रूप से सुख चाहती हैं । जिस प्रकार हमें जीने का अधिकार है उसी प्रकार दूसरों