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महावीर-वाणी में श्रम-भाव की प्रतिष्ठा
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जे केई उ पच्वइए, निबासीले पग़ामसो
भोच्चा पिच्चा सुह सुअइ पाव समणेत्ति वुच्चई।' जो व्यक्ति प्रवजित होकर भी रात-दिन नींद लेता रहता है, आलस में डूबा रहता है और खा-पीकर पेट पर हाथ फिराता रहता है, वह चाहे श्रमण ही क्यों न हो वह पापी । महावीर की भाषा में ऐसे श्रम हीन श्रमण भी 'पापी श्रमण' कहलाते हैं।
श्रम की इससे बड़ी प्रतिष्ठा और क्या होगी कि श्रमण होकर भी अगर कोई आलसी रहता है तो महावीर उसे भी 'पापी-श्रमण'. निकृष्ट श्रमण अर्थात् सिर्फ श्रमण वेशधारी कहते हैं। श्रम कभी निष्फल नहीं होता :
महावीर का कर्म सिद्धान्त 'श्रम-भाव' की सच्ची प्रतिष्ठा करता है। कर्मवाद का मूल इसी में है कि हम जैसा कर्म करेंगे वैसा ही फल प्राप्त करेंगे । शुभ एवं सत्कर्म का शुभ फल मिलेगा अशुभ एवं असत्कर्म का अशुभ फल मिलेगा ---इसका सीधा अर्थ यही है कि हमारा कर्म अर्थात् श्रम कभी निष्फल नहीं होता । अगर श्रम के साथ हमारी मनोवृत्ति कलुपित है तो वह श्रम-हमारे पतन का कारण बन जाता है और श्रम के साथ मनोवृत्तियां शुद्ध हैं, भावना पवित्र है तो वह श्रम हमें कल्याण की ओर गतिशील बनायेगा। शुद्ध एवं पवित्र मनोभावना के साथ ही श्रम की सफलता है और वह श्रम श्री-समृद्धि का कारण बनता है । सद्भावना के साथ कर्तव्य में सतत लीन की घोपणा-किरियं रोयए धीरोसे महावीर वाणी में श्रम की सार्थकता स्पप्ट ध्वनित है ।
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१. उत्तराध्ययन १७१३ २. औपपातिक सूत्र, ५६
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