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आर्थिक संदर्भ
कसता है, वह श्रमरण है। इससे तप और श्रम की एक रूपता भी स्पष्ट होती है । जैन दृष्टि में 'तप' को सिर्फ उपवास आदि तक ही सीमित नहीं रखा गया है, किंतु जीवन की समस्त सात्विक प्रवृत्तियों को 'तप' की परिभाषा में समाहित कर दिया गया है। शुद्ध वृत्ति से भिक्षाचर्या करना भी तप है, ग्रासन-प्रारणायाम, ध्यान यादि करना भी तप है, सेवासुश्रुपा - परिचर्या करना भी तप है, और प्रतिसंलीनता, अपनी वृत्तियों का संकोच, चाराम सुख-सुविधा की यादत का परित्याग करना - यह भी तप के अन्तर्गत है । इस प्रकार 'तप' एक विराट जीवन दर्शन के रूप में जीवन में सर्वत्र व्याप्त तत्व के रूप में दिखाया गया है । श्रुतः इस 'तप' को श्रम कहा गया है ।
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महावीर की श्रमशीलता :
भगवान् महावीर 'महाश्रमण' कहलाते थे । एक राजकुमार का सुकुमार देह पाकर भी उन्होंने रोमांचित कर देने वाला जो कठोर श्रम-तप किया, जिस पूर्व स्वावलंबन का आदर्श अपनाया और जिस अप्रतिहत पुरुषार्थवाद का संदेश दिया वह उस युग में श्रम-भाव की प्रतिष्ठा का जीवन्त उदाहरण था । 'श्रमण' बनकर उन्होंने कभी किसी से सेवा नहीं ली और तो क्या कप्टों के भयंकर भंभावतों में जब स्वयं देवराज इन्द्र ने ग्राकर उनसे प्रार्थना की——मैं आपकी सेवा में रहूंगा, तो महान् स्वावलंबी महावीर ने शांत भाव के साथ कह दिया "मैं अपने श्रम-वल और पुरुषार्थ से ही सिद्धि प्राप्त करूंगा, किसी अन्य के सहयोग की ग्राकांक्षा करके नहीं ।"
तपस्वी जीवन में तो श्रमरण महावीर सदा एकाकी रहे, अतः किसी से सेवा लेने का प्रश्न ही क्या था, किन्तु तीर्थंकर बनने के बाद भी उन्होंने दूसरों से विशेष सेवा ली हो, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता, वल्कि तीर्थंकर जीवन में भगवान् महावीर ने जो भी प्रदेश -~ उपदेश दिये वे सब स्वयं श्रम करने के ही समर्थन में थे ।
स्वयंसेवी ही सच्चा श्रमरण :
महावीर के चौदह हजार शिष्यों में इन्द्रभूति गौतम सवसे ज्येष्ठ थे, प्रथम गणधर थे और भगवान् के अनन्य उपासक थे । किन्तु उनके जीवन में भी हम श्रम की प्रतिष्ठा पूर्णतः साकार हुई देखते हैं । वे अपने हाथ से अपने सब काम करते हैं । भिक्षा लेने के लिए जाते हैं तो स्वयं ही अपने पात्र ग्रादि अपने हाथ में लेते हैं, अपना भार स्वयं उठाते हैं और स्वयं ही अपना सब काम करते हैं। हजारों शिष्यों का एक मात्र प्राचार्य भी जव अपना काम अपने हाथ से करता है तो वहां श्रमशीलता की भावना क्यों नहीं साकार होगी ?
श्रमरण के लिए भी भगवान् महावीर ने स्वयं अपना काम अपने हाथों करने का यादेश दिया है । जो दूसरों से सेवा नहीं लेता वही सच्चा श्रमरण हैं', यह महावीर वाणी का उद्घोष है । पुरुषार्थ-हीन बालसी व्यक्तियों को महावीर ने निकृष्ट बताया है, चाहे वह गृहस्थ हो या श्रमरण । पावापुर के अन्तिम प्रवचन में तो महावीर ने यहां तक कहा -
१. दरावैकालिक १०।१०