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आर्थिक, मानसिक और श्राध्यात्मिक गरीबी कैसे हटे ? • श्री रणजीतसिंह कुमट
गरीबी : एक अभिशाप :
गरीबी चाहे किसी भी क्षेत्र में हो, एक अभिशाप है | जहां यह हिंसा, द्वेष एवं मालिन्य की जननी है वहां एक विस्फोटक तत्व भी है । इसमें सामन्यतः हेय और उपादेय उचित और अनुचित की सीमा का भान नहीं रहता, इसको हटाना नितान्त आवश्यक है । इस दिशा में चिंतन का एक दृष्टिकोण प्रस्तुत है ।
गरीबी : आर्थिक, मानसिक एवं प्राध्यात्मिक :
गरीवी तीन प्रकार की हो सकती है : आर्थिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक । आर्थिक गरीवी एक ऐसी वास्तविकता है जहां शरीर की न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भी पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं होते । भूख और बीमारी से लड़ते-लड़ते ही जीवन समाप्त हो जाता है । इसके विपरीत मानसिक गरीबी का तात्पर्य व्यक्ति की उस मनःस्थिति से है जहां पर्याप्त साधन होते हुए भी जीवन में सन्तोष नहीं । तृष्णा के माया जाल में वह दिन रात फंसा हुआ अधिक से अधिक धन एकत्र करने में लगा रहता है । वह अपनी तुलना उनसे करता है जिनके पास उससे भी अधिक धन है और वह उसके समकक्ष थाने की योजना बनाता रहता है । आध्यात्मिक गरीबी का तात्पर्य उस खाई से है जो प्रादर्श और आचरण के बीच में पायी जाती है । इसका तात्पर्य उन परिपाटियों से भी है जिन्होंने धर्म और नैतिकता को घेर रखा है और सत्य को प्रवृत कर दिया है ।
जब तक मानसिक गरीवी नहीं मिटती, ग्रार्थिक और आध्यात्मिक गरीबी नहीं मिट सकती । धन-संग्रह ही समाज में फैली गरीबी का प्रमुख कारण है । शोषण, अनियमितता व राज्य-विरोधी कार्यो से धन संग्रह की गति बढ़ती है और इस क्रम में ग्रौचित्य का स्थान गौण हो जाता है । समाज व राष्ट्र को क्या हानि होगी, इसका कोई ख्याल नहीं रहता । तृष्णा के चक्कर में फंसे व्यक्ति में आध्यात्मिक विकास उसी प्रकार सम्भव है जैसे मगरमच्छ पर बैठे व्यक्ति का समुद्र पार करना । इसके विपरीत आर्थिक गरीवी से त्रसित व्यक्तियों से श्राध्यात्म व नैतिकता के विकास की अपेक्षा करना अनुचित है । श्रर्थ की विपुलता व कमी दोनों ही प्राध्यात्म विकास में बाधक हैं ।