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समाजवादी अर्थ-व्यवस्था और महावीर
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होता है । जव सामाजिक अर्थ व्यवस्था होती है तो उसमें व्यक्ति का कर्तव्य सजग वनता है किन्तु समाजगत सम्पत्ति में व्यक्ति का मोह नहीं होता । एक राजकीय छात्रावास में कई छात्र रहते हैं । छात्रावास की सारी सम्पत्ति छात्रों के अधीन होती है किन्तु छात्रों का ममत्व उसमें नहीं होने से उसके उपयोग में समानता का व्यवहार ही होता है । सामाजिक स्वामित्व मूलतः समता प्रेरक होता है । अतः महावीर का परिग्रह के साथ परिग्रह के प्रति ममत्व को भी घटाने का उपदेश ही सामाजिक स्वामित्व का पथ निर्देश करता है ।
(२) सम्पत्ति के संचय का विरोध-समाज की प्रगति-विगति में अर्थ की स्थिति ने सदा सर्वाधिक प्रभाव डाला है, इस कारण अर्थ-संग्रह के आधिक्य को रोकना समाज‘वादी अर्थ व्यवस्था का पहला कर्तव्य होता है। महावीर ने सम्पत्ति के संचय का विरोध करके आर्थिक केन्द्रीकरण का मार्ग प्रशस्त किया। संचय को प्रासक्ति माना गया तथा आसक्ति यात्म पतन की सूचिका बताई गई। साधु तो सम्पत्ति का सर्वाशतः त्याग करता है तथा फिर सम्पत्ति को किसी भी रूप में छूता तक नहीं, लेकिन ग्रहस्थ श्रावक को भी सम्पत्ति के सम्बन्ध में अधिकाधिक मर्यादित जीवन व्यतीत करने का निर्देश दिया गया । .
(३) मर्यादा से पदार्थो के सम-वितरण की भावना-श्रावक जो कि सम्पत्ति के सहयोग से ही अपना गृहस्थ जीवन चलाता है, सम्पत्ति के संचय में न पढे यह तो परिग्रह परिमाण व्रत का एक उद्देश्य है किन्तु दूसरा उद्देश्य यह भी है कि सारे समाज में पदार्थों का सम-वितरण हो सके क्योंकि मर्यादा की परिपाटी से कम हाथों में सीमित पदार्थों का केन्द्रीकरण नहीं हो सकेगा। एक अपरिमित मात्रा में सुख-सुविधा के पदार्थो का संग्रह करले और दूसरा उनके अभाव में पीड़ित होता रहे- यह महावीर को मान्य नहीं था । वितरण के केन्द्रीकरण की कल्पना उस समय ही महावीर ने करली थी जो आज समाजवादी अर्थव्यवस्था की दृष्टि मे सर्वश्रेष्ठ पद्धति समझी जाती है।
(४) स्वैच्छिक अनुशासन को बल-वही सामाजिक अर्थव्यवस्था स्थिरता धारण कर सकेगी जो स्वैच्छिक अनुशासन के बल पर जीवित रहेगी। कितनी ही अच्छी वात भी अगर बलात् लादी जाती है तव भी हृदय उसे सहज में ग्रहण नहीं करता है । अतः अाधुनिक समाजवादी दर्शन मे यदि इस भावना को अपनालिया जाय तो समाजवादी अर्थ व्यवस्था को अधिक सुदृढ़ता एवं अधिक स्थिरता प्रदान की जा सकेगी।
(५) विचार और प्राचार में समन्वय-किसी भी समाजवादी अर्थव्यवस्था के लिये यह आवश्यक परिस्थिति मानी जायगी कि प्रत्येक व्यक्ति अपने विचार और आचार को दूसरे के साथ समन्वित करने की चेष्टा करे। यह समन्वय जितना गहरा होगा उतना ही व्यवस्था का सचालन सहज होगा। अपेक्षावाद और अहिंसा के सिद्धांत ऐसे समन्वय के प्रतीक हैं। महावीर के निदान आज भी उतने ही प्रभावशाली:
अन्त में यह कहा जा सकता है कि समाजवादी अर्थ व्यवस्था के सुचारू निर्धारण की दृष्टि से ढाई हजार वर्ष पूर्व उपदेशित किये गये महावीर के निदानात्मक सिद्धांत पाज भी उतने ही प्रभावशाली हैं और समाजवादी अर्थव्यवस्था के नये रूप को ढालने में पूर्णतः सक्षम हैं।
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